अदालत का साफ मानना था कि पूर्णबंदी के दौरान स्कूल केवल ट्यूशन फीस के अलावा अन्य कोई भी शुल्क मांगने के हकदार नहीं

 


जब समूची दुनिया में कोरोना विषाणु से उपजी महामारी ने कहर मचाया हुआ था, तब हमारे देश में भी सरकार की ओर से इसका सामना करने के लिए तमाम वैकल्पिक उपाय निकाले जा रहे थे। बाकी अन्य मोर्चों पर जितना संभव हुआ, उतना सरकार ने किया। इसी क्रम में बच्चों को महामारी की चपेट में आने से बचाने के लिए स्कूल बंद किए जाने से लेकर अन्य तमाम दिशा-निर्देश जारी किए गए थे।

इसके तहत स्कूलों से यह भी कहा गया था कि वे इस दौरान बच्चों की फीस न वसूलें। लेकिन बहुत सारे स्कूलों ने इस पर गौर करना जरूरी नहीं समझा और कोरोना काल में भी अभिभावकों से शुल्क वसूले थे। इसके खिलाफ कुछ अभिभावकों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील की थी।


मामले पर सुनवाई के बाद अदालत ने स्कूलों को पूर्णबंदी के समय ली गई फीस का पंद्रह फीसद अभिभावकों को लौटाने का आदेश दिया था।


अदालत का साफ मानना था कि पूर्णबंदी के दौरान स्कूल केवल ट्यूशन फीस के अलावा अन्य कोई भी शुल्क मांगने के हकदार नहीं थे। हालांकि उस दौरान जो हालात थे, उसमें ऐसा करना एक सामान्य समझ का भी तकाजा था, मगर इसके लिए अदालत को यह निर्देश देने की जरूरत पड़ी।


विडंबना यह है कि स्कूलों को अदालत के स्पष्ट आदेश को भी मानना जरूरी नहीं लगा। उन्होंने न फीस लौटाई या न ही उसे संयोजित किया। यह अपने आप में एक तरह से अदालती आदेश का उल्लंघन ही था। अब इस मामले में कार्रवाई करते हुए उत्तर प्रदेश में गौतमबुद्ध नगर के जिलाधिकारी ने जिले में ऐसा करने वाले स्कूलों की पहचान की और यहां के सौ से ज्यादा निजी स्कूलों पर एक-एक लाख रुपए का जुर्माना लगाया है।


यही नहीं, इस कार्रवाई के तहत कहा गया है कि अगर दस दिन के भीतर वसूला गया विद्यालय शुल्क अभिभावकों को वापस नहीं किया गया तो जुर्माने की रकम बढ़ा कर पांच-पांच लाख रुपए कर दी जाएगी। हो सकता है कि गौतमबुद्ध नगर के जिलाधिकारी के आदेश के कुछ कानूनी परिप्रेक्ष्य हों और उसी संदर्भ में इस पर ओमल को लेकर कुछ सवाल हों।


लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के बावजूद इतने बड़े पैमाने पर स्कूलों ने अपनी मनमर्जी से फीस की वसूली की तो यह अपने आप में हैरान करने वाला मामला है। सवाल है कि अगर कोरोना से बचाव की कोशिश में बच्चों की सुरक्षा के मद्देनजर स्कूलों को भी बंद रखा गया था, तो स्कूलों को कम से कम उस समय विद्यार्थियों से वसूले जाने वाले शुल्क के ढांचे पर अपनी ओर से विचार करना जरूरी क्यों नहीं लगा!


यह जगजाहिर तथ्य है कि पूर्णबंदी और महामारी के चरम के वक्त लोगों ने अपनी ओर से बचाव की कोशिशों में हर संभव सहभागिता की जिम्मेदारी निभाई। बल्कि इस क्रम में जो लोग परेशानी में घिर गए, जिनका रोजगार छूट गया, जिनके सामने खाने-पीने तक का संकट खड़ा हो गया, उस समय ऐसे तमाम लोग सामने आए, जिन्होंने अपनी सीमा में अपने खर्चे से जरूरतमंदों की मदद की।


खुद सरकार ने अनाज मुहैया कराने से लेकर कई तरह के कार्यक्रम चलाए। ऐसे में स्कूलों की क्या जिम्मेदारी बनती थी? कम से कम फीस नहीं लेने की अपीलों के बाद उन्हें मदद के तौर पर ही सही, अपने यहां पढ़ने वाले बच्चों की फीस का ढांचा कुछ नरम करना चाहिए था। लेकिन हालत यह रही कि वसूले गए शुल्क लौटाने के अदालत के निर्देश पर भी अमल करना उन्हें जरूरी नहीं लगा। इसलिए गौतमबुद्ध नगर के जिलाधिकारी की ओर से इस संबंध में की गई कार्रवाई का आधार समझा जा सकता है!

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