बाल अपराध। यह कल्पना भी दहला देती है कि बारह-तेरह साल के बच्चे अब इस मानसिक अवस्था में जीने लगे हैं कि एक बेहद मामूली बात पर बेलगाम होकर उनमें से कोई अपने ही किसी सहपाठी की ही हत्या कर दे। दिल्ली के बदरपुर इलाके में स्थित एक स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक छात्र ने सिर्फ संयोगवश अपने दो सहपाठियों को सिगरेट पीते देख लिया और इसकी शिकायत कर देने की बात कह दी।
यह एक ऐसी बात है, जिसे आम सामाजिक जीवन में बिल्कुल सामान्य गतिविधि के तौर पर देखा और लिया जाता रहा है। लेकिन सिर्फ इतने भर के लिए सिगरेट पीने वाले दोनों छात्रों के भीतर ऐसी प्रतिक्रिया पैदा हुई कि वे पहले अपने सहपाठी को बहला-फुसला कर सुनसान जगह पर ले गए, वहां उसकी पत्थरों से मार कर हत्या कर दी और शव को एक नाले में फेंक दिया।
इस अपराध की प्रकृति को देखा जाए तो एकबारगी यह पेशेवर अपराधियों की हरकत लगती है, जिसमें योजनाबद्ध तरीके से अपराध को अंजाम देने और बचने की कोशिश की जाती है।
इस घटना में बेहद त्रासद और दुखद यह है कि दो ऐसे बच्चे हत्या के आरोपी हैं, जो अभी महज करीब बारह साल के हैं। जाहिर है, कानून की कसौटी पर इसमें बच्चों को नाबालिग आरोपी मान कर बरता जाएगा और उसी मुताबिक निर्धारित सजा भी तय होगी। लेकिन इस मामले को सिर्फ एक सामान्य अपराध मानने के बजाय इसकी जटिलताओं पर गौर करने की जरूरत है।
समाज से लेकर सरकार को इस पर चिंतित होना चाहिए कि सार्वजनिक जीवन में कहां और क्या ऐसी चूक हो रही है कि जिस उम्र में बच्चों को सद्भाव का प्रतीक होना चाहिए, पढ़ाई में दिलचस्पी लेनी चाहिए, मामूली बातों पर थोडा झगड़ने के बाद फिर साथ मिल कर खेलना-कूदना और दोस्ती करना चाहिए, प्यार का संदेश बनना चाहिए, उस उम्र में सिगरेट जैसी लत का शिकार होने से आगे वे असंतुलित मन:स्थिति में चले जा रहे हैं।
बच्चों के अपराध में पड़ने के पीछे ज्यादातर परिवार की ढील और बड़वा देना है उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ थाना कोतवाली नगर पुलिस ने एक पूरा परिवार अपराधिक घटनाओं में शामिल होने के कारण सिर्फ इलाका पुलिस ने घर के एक सदस्य को गिरोह बंद अपराध (गुंडा एक्ट) में करवाई की है। जबकि शातिर बाप के खिला़फ करवाई करनी चाहिए थी। जबकि नशीले पदार्थो की बिक्री, गौ तस्करी, चोरी, अमानत में खयानत, दबंगई के मामले दर्ज़ है।
सफेद पोश नेताओं और इलाका पुलिस निजी लाभ कमाने के चक्कर में बचाती रही हैं ।
सवाल है कि इतनी कम उम्र में बच्चों के भीतर ऐसी विकृति और आक्रामकता कहां से आ रही है, जो कई बार जघन्य अपराधों की हद तक चली जाती है। क्या यह शिक्षा और पालन-पोषण में जरूरी तकाजों का खयाल नहीं रखने का नतीजा है? या फिर यह ऐसे माहौल की देन है जो बिना शोर के हमारे आसपास बन रहा है और या तो हम उस पर ध्यान नहीं दे पाते या फिर उसे अपनी सुविधा के तौर पर देखते हैं?
दरअसल, पढ़ाई-लिखाई की निर्धारित दिनचर्या के अलावा बच्चों की जिंदगी में कैसी व्यस्तताएं बन रही हैं, उस पर नजर रखना अब न अभिभावकों को जरूरी लगता है, न एक समस्या बन रहे इस पहलू पर स्कूल में या कहीं भी बच्चों को प्रशिक्षित किए जाने की व्यवस्था है। इंटरनेट से लैसस्मार्टफोन सहित अपने सामने की तकनीकी दुनिया की तमाम गतिविधियां अब बच्चों की जिंदगी में देखने-सुनने और कई बार उसमें शामिल होने का हिस्सा बन रही हैं।
मुश्किल यह है कि किशोर उम्र में जिन बातों से उपजे भ्रम को संवेदनशीलता के साथ दूर करके उन्हें जरूरी बातें बताने की जरूरत होती है, वे बातें बच्चे अब अलग तरह से सुनते और समझते हैं। नतीजतन, उनके भीतर मनोवैज्ञानिक स्तर पर जिस तरह का विभ्रम, ऊहापोह और उथल-पुथल मचता है, वह उनके सोचने-समझने के सलीके को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। बहुत मामूली बातों पर हुए झगड़े के बीच बेलगाम आक्रामकता में कई बार यह भी पता नहीं चल पाता कि वे जो करने जा रहे हैं, वह गंभीर अपराध है और इस वजह से उनकी बाकी जिंदगी भी बुरी तरह प्रभावित हो सकती है।
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