अधिकारों की आड़ में पुलिस नागरिकों को अमानवीय तरीके से प्रताड़ित नहीं कर सकती

 


मानवाधिकार। किसी भी शिकायत के बाद अगर पुलिस आरोपी को हिरासत में लेती या गिरफ्तार करती है तो उससे आगे की समूची कार्रवाई के लिए बाकायदा कानूनी प्रक्रिया निर्धारित है। इसमें आरोपी के खिलाफ हिंसा करना या उसे इस हद तक यातना देना कि उसकी मौत हो जाए, किसी भी हाल में स्वीकार्य व्यवस्था नहीं है।यह एक तरह से कोई आरोप या अपराध साबित हुए बिना ऐसी सजा होती है, जो कानूनी कसौटी पर मिलने वाली मौत की सजा के समांतर होती है। 

निश्चित तौर पर यह एक तरह से अपराध ही है, लेकिन लंबे समय से इस चलन पर सवाल उठने और यहां तक कि अदालतों की ओर से भी नाराजगी जताए जाने के बावजूद आज भी इसे पूरी तरह रोक पाना संभव नहीं हुआ है। अब एक बार फिर इस मसले पर बंबई उच्च न्यायालय ने कहा है कि हिरासत में मौत सभ्य समाज में सबसे खराब अपराधों में से एक है और अधिकारों की आड़ में पुलिस नागरिकों को अमानवीय तरीके से प्रताड़ित नहीं कर सकती।

गौरतलब है कि महज ट्रैक्टर पर तेज आवाज में संगीत बजाने के आरोप में महाराष्ट्र के सोलापुर में दो पुलिसकर्मियों ने एक युवक को इतनी बर्बरता से मारा-पीटा कि आखिर उसकी मौत हो गई। इसी मामले में मुंबई हाई कोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने महाराष्ट्र सरकार को यह निर्देश दिया कि वह पुलिस हिरासत में मारे गए युवक की मां को मुआवजे के तौर पर पंद्रह लाख रुपए भुगतान करे।

अदालत के फैसले से स्पष्ट है कि किस तरह बिना किसी बड़ी वजह के युवक को पुलिसकर्मियों ने न सिर्फ पकड़ा, बल्कि उसकी जान तक ले ली। सवाल है कि पुलिसकर्मियों को इस कदर बेलगाम बर्ताव करने की इजाजत किसने दी या फिर उनके भीतर यह सब करके सुरक्षित रहने का भाव कहां से आया? अव्वल तो अगर युवक तेज आवाज में संगीत बजा कर कुछ गलत कर रहा था तो उसे कानून के दायरे में रह कर रोका जा सकता था। मगर सिर्फ इतने भर के लिए उसकी जान ले लेने तक यातना देने की छूट किस कानून के तहत मिलती है?

इस मसले पर अदालत ने भी कहा कि पुलिस के पास लोगों की गतिविधियों और अपराध को नियंत्रित करने की शक्ति है, मगर यह अबाध नहीं है और उसकी आड़ में पुलिसकर्मी किसी नागरिक के खिलाफ अमानवीय तरीके से व्यवहार नहीं कर सकते। 

सुप्रीम कोर्ट 1996 में ही स्पष्ट कर चुका है कि हिरासत में हुई मौत कानून के शासन में सबसे जघन्य अपराध है। तब शीर्ष अदालत ने किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के दौरान पुलिस के व्यवहार को लेकर नियम भी निर्धारित कर दिए थे। मगर उसके बाद तस्वीर कितनी बदली है, यह आए दिन पुलिस हिरासत में होने वाली हिंसा और मौत की घटनाओं से पता चलता है। इसे किसी भी हाल में सामान्य नहीं माना जा सकता।

ऐसे मामलों में कायदे से आरोपी पुलिसकर्मियों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। मगर आमतौर पर होता यह है कि पीड़ित व्यक्ति या उसके परिजन को मुआवजा देकर मामले में न्याय हुआ मान लिया जाता है। सच यह है कि हमारे देश की पुलिस-व्यवस्था में तत्काल बड़े सुधार और पुलिसकर्मियों को कानूनी दायरे और संवेदनशील व्यवहार को लेकर पर्याप्त स्तर तक प्रशिक्षित करने की जरूरत है। चिंताजनक है कि हर साल देश भर में सैकड़ों लोग हिरासत में पुलिस हिंसा के शिकार होते हैं, जिनमें से बहुतों की जान चली जाती है।

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