इतिहास के आईने में अलीगढ़ एक एतिहासिक शहर


इतिहास के आईने में अलीगढ़ एक एतिहासिक शहर है। जो ताला एवं तालीम के लिए बेहद प्रसिद्ध माना जाता है। इस शहर में वर्ष 1803 की लड़ाई काफी प्रसिद्ध है। जिसमें मराठों और अंग्रेजों के बीच अधिग्रहण को लेकर युद्ध हुआ था। अलीगढ़ का किला आज भी इसकी गवाही देता है। अलीगढ़ में वर्ष 1875 मे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी। शहर को इतिहास के झरोखे से अगर देखा जाए तो 1909 में प्रकाशित यूनाइटेड प्रोविंस के गंजटियर वॉल्यूम -3 में इसका जिक्र मिलना शुरू होता है। इसके मुताबिक हिंदू मान्यताओं के अनुसार अलीगढ़ का भू- भाग पांडवों के राज्य के तहत शामिल होना माना गया है। यह भी कहा जाता है कि पांडवों के बाद उनके वंशज अपनी राजधानी अहार में ले आए जो आजकल जिला बुलंदशहर का हिस्सा है। हस्तिनापुर के तबाह होने के बाद यह निर्णय लिया गया था।



इतिहास में एक और अन्य दावा मिलता है जिसमें कौशांबी राज्य का हिस्सा होने के चलते इसका नामकरण कोल होने की बात कही गई है। पौराणिक ग्रंथों में यह भी जिक्र मिलता है कि श्री कृष्ण के भाई बलराम ने गंगा जाते समय एक राक्षस का वध किया और अपने हल को एक स्थान पर धोया। यही स्थान कालांतर में हरदुआगंज कहलाया। यह सभी पौराणिक बातें हैं, लेकिन ठोस ऐतिहासिक साक्ष्य जहां पर कुछ अवशेष पाए गए हैं। जो गुप्त काल के होने का संकेत करते हैं। गुप्त अलीगढ़ का भूभाग डोर राजपूतों के साम्राज्य का हिस्सा भी रहा। एतिहासिक दस्तावेजों में भी इसका जिक्र मिलता है कि राजा विक्रम सेन का शासन था और उनका भाई काली जलाली में रहता था, जो आज अलीगढ़ का हिस्सा है। डोर राजपूतों के बाद अलीगढ़ के भूभाग पर पठान सुल्तान, मुगल, मराठा, जाट साम्राज्य और बाद में ब्रिटिश शासन में मराठों और अंग्रेजों के बीच निर्णयक युद्ध के बाद अंग्रेजों की विजय हुई। सन् 1804 में अलीगढ़ जिला बना और कर्नल रसल पहले कलेक्टर के रूप में यहां पर नियुक्त हुए। इस तरह अलीगढ़ में आधुनिक नगरीय जीवन की शुरुआत हुई।

समय का बोध कराता रहा है घंटाघर
एक समय था जब समय देखेने लिए घड़ियों की जरुरत होती थी। जो रईसों के पास ही होती थी। शहर में आम लोगों को घंटाघर में लगी घड़ियों से वक्त का पता चलता था। घंटाघर की आवाज काफी दूर तक सुनाई देती थी। उस दौर में बनाए गए घंटाघर आज भी मौजूद हैं। इसे एतिहासिक धरोहर तो माना जाता है, लेकिन इसके महत्व को प्रशासन ने भुला दिया है। अलीगढ़ के पॉश इलाके में घंटाघर की इमारत पर इसी उपेक्षा की परत चढ़ रही है। यहां लगी घड़ी को ठीक कराने के लिए किसी महकमे ने जहमत नहीं उठाई। जबकि, घंटाघर पार्क से कुछ ही मीटर दूर डीएम आवास है। नगर निगम का सेवा भवन भी पास ही है। दीवानी, कलक्ट्रेट, आइजी, एसएसपी कार्यालय के लिए भी यहीं से होकर रास्ता है। आते-जाते अधिकारियों की नजर भी घंटाघर पर पड़ती होगी, लेकिन घड़ी ठीक कराने के बारे में शायद ही किसी ने सोचा हो। नगर निगम ने पार्क के हालात सुधार दिए। यहां ओपन जिम के लिए उपकरण भी रखवाए गए। फव्वारे, फुलवारी, लाइट लगवा कर पार्क का आकर्षण बढ़ाया, मगर घड़ी को निगम अधिकारी भी ठीक न करा सके।
बौना चोर का किला
अलीगढ़ के किले को बौना चोर का किला या रामगढ़ किला भी कहा जाता है। यह किला अलीगढ़ के दर्शनीय स्थलों में से मुख्य आकर्षण में से एक है। इस किले को इब्राहिम लोढ़ी के शासनकाल के दौरान 1525 में गवर्नर उमर के पुत्र मोहम्मद ने बनाया था। यह एक पहाड़ी पर स्थित है जो सभी तरफ लगभग 32 फीट खड़ी घाटी के साथ मौजूद है। बहु कोण निर्माण का प्रत्येक कोण पर बुर्ज होने वाली प्राचीन गवाही का मुख्य आकर्षण है। प्राचीन किले ने कई शासकों और गवर्नरों की सेवा की। जिनमें सबित खान, सूरजमल जाट (1753) और माधवराव सिंधिया (1759) शामिल हैं। पुराना किला 1753 में समकालीन शासक सूरजमल जाट के लेफ्टिनेंट बनसौर ने लगभग तीन गुना बढ़ा दिया था। उन दिनों के दौरान, किले में एक विशेष विस्फोटक गोदाम और एक ठंडी हवा और रसोई था। इसके अलावा किले में एक तहखाना है, जो बाहर से ज्यादा दिखाई नहीं देता है। ऐतिहासिक किला बरौली मार्ग पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उत्तर में स्थित है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय इस का प्रबंधन प्राधिकरण है, जो साइट पर बॉटनी के विभाग की सेवा भी कर रहा है। शहर के केंद्र से केवल तीन किमी की दूरी पर उत्तर, यह जगह टैक्सी, साईकिल, ई- रिक्शा या ऑटो रिक्शा से आसानी से पहुंचा जा सकता है।



ऊपर कोट इलाके में बनी जामा मस्जिद को मुगलकाल में मुहम्मद शाह (1719-1728) के शासनकाल में कोल के गवर्नर साबित खान ने 1724 में इसका निर्माण शुरू कराया था। इसमें चार साल लगे और 1728 में मस्जिद बनकर तैयार हो पाई। मस्जिद में कुल 17 गुंबद हैं। मस्जिद के तीन गेट हैं। इन दरवाजों पर दो-दो गुंबद हैं। यहां एक साथ 5,000 लोग नमाज पढ़ सकते हैं। यहां औरतों के लिए नमाज पढ़ने का अलग से इंतजाम है। इसे शहदरी (तीन दरी) कहते हैं। देश की शायद यह पहली मस्जिद होगी, जहां शहीदों की कब्रें भी हैं। इसे गंज-ए-शहीदान (शहीदों की बस्ती) भी कहते हैं। तीन सदी पुरानी इस मस्जिद में कई पीढ़ियां नमाज अदा कर चुकी हैं। अनुमान है कि इस वक्त मस्जिद में आठवीं पीढ़ी नमाज पढ़ रही है।

अलीगढ़ के ऊपरकोट इलाके में स्थित जामा मस्जिद ऐसी है, जिसके निर्माण में देश में सबसे ज्यादा सोना लगा है। जो स्वर्ण मंदिर से भी कहीं ज्यादा है। जामा मस्जिद में आठवीं पीढ़ी नमाज अदा कर रही है। इसके गुंबदों में ही कई क्विंटल सोना लगा है। यह अलीगढ़ में सबसे पुरानी और भव्य मस्जिदों में से एक है। इसको बनने में 14 साल लगे थे। मस्जिद बलाई किले के शिखर पर स्थित है तथा यह स्थान शहर का उच्चतम बिंदु है। अपने स्थिति की वजह से, इसे शहर के सभी स्थानों से देखा जा सकता है। मस्जिद के भीतर छह स्थल हैं जहां लोग नमाज अदा कर सकते हैं। मस्जिद का जीर्णोद्धार कई दौर से गुजरा तथा यह कई वास्तु प्रभावों को दर्शाता है। सफेद गुंबद वाली संरचना एवं खूबसूरती से बने खम्भे मुस्लिम कला और संस्कृति की खास विशेषताएं हैं।

मौलाना आजाद लाइब्रेरी
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को मौलाना आजाद लाइब्रेरी के नाम से जाना जाता है। यह एशिया की दूसरी सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी है। इसकी सात मंजिला इमारत करीब 4.75 एकड़ में फैली हुई है। इसमें करीब 14 लाख से अधिक किताबें हैं। 1960 में इसे मौलाना आजाद पुस्तकालय से नामित किया गया था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इसकी वर्तमान इमारत का उद्घाटन किया था। वर्ष 2010 में पचास साल पूरे होने पर इसकी गोल्डन जुबली मनाई गई। इस लाइब्रेरी मे काफी पर्यटक आते हैं। जिसके कारण यह अलीगढ़ के दर्शनीय स्थलों में काफी चर्चित स्थल बन गई है।

तीर्थ धाम मंगलायतन
भगवान आदिनाथ को मुख्य देवता, मूलनायक के रूप में शामिल किया गया है। इसे मंदिर परिसर में चल रही एक कृत्रिम पहाड़ी पर बनाया गया है। पहाड़ी चार की ऊंचाई से शुरू होती है और 31 तक बढ़ जाती है। अपने चरम पर एक सफेद संगमरमर मंच उच्च गुलाबी संगमरमर कमल सिंहासन का समर्थन करता है। इस पर बैठे भगवान आदिनाथ की हेलो (भामंदल) और तीन छतरियों (छत्र) के साथ एक प्रभावशाली उच्च सफेद संगमरमर की मूर्ति है। जमीन के स्तर से 55 फीट की अधिकतम ऊंचाई तक की मूर्ति, आगरा-अलीगढ़ राजमार्ग पर जाने वाले हर किसी के लिए एक आकर्षण का केंद्र बिंदु है। भक्तों के लिए मंदिर मे जाने के लिए सीढ़ी बनाई गई है। उन लोगों के लिए जो सीढ़ियों पर चढ़ नहीं सकते हैं उनके लिए एक रैंप वाला रास्ता बनाया गया है। दिव्यांग, वृद्ध व्यक्तियों के लिए एक उच्च गति की लिफ्ट की स्थापना भी की जा रही है।

बाबा बरछी बहादुर दरगाह
रेलवे स्टेशन के पास कठपुला स्थित बरछी बहादुर की दरगाह पर हिंदू-मुस्लिम, सिख-ईसाई सभी समुदाय के लोग दूर -दूर से इबादत करने आते हैं। सैंकड़ों साल पुरानी इस दरगाह के बारे में मान्यता है कि यहां जो भी चादर चढ़ाकर इबादत करता है उसकी हर मन्नत पूरी होती है। सुरक्षा के लिहाज से दरगाह परिसर को पूरी तरह सीसीटीवी से लैस किया गया है। अजमेर के ख्वाजा गरीब नवाज ने ख्वाजा कुतुबद्दीन बख्तियार काकवी को अपना शागिर्द बनाया था और बाबा बरछी बहादुर काकवी के साथी थे। बाबा बरछी बहादुर का नाम सैयद तहबुर अली था, उनके अनुयायी हजरत जोरार हसन ने सबसे पहले बरछी बहादुर पर उर्स की शुरुआत की थी। बाबा बरछी बहादुर के अलावा हजरत शमशुल आफरीन शाहजमाल की दरगाह भी अलीगढ़ के इतिहास में दर्ज बहुत पुरानी दरगाह है।

सरायों से बनी अलीगढ़ की पहचान
शहर का जिक्र यहां मौजूद सरायों के बिना अधूरा है। 1909 के समय के आसपास की बात की जाए तो शहर में 126 मोहल्ले दर्ज किए गए थे , जिसमें बहुत सी सराय थीं। यह सराय आज के होटलों की तरह होती थीं। अलीगढ़ व्यापारिक मार्ग पर प्रमुख स्थान पर होने के चलते यहां पर व्यापारी रुककर रात गुजारा करते थे। व्यापारियों के साथ उनके मवेशियों के लिए चारे- पानी की व्यवस्था भी इन सरायों में रहती थी। जीटी रोड पर बसे होने और रेलवे के साथ अच्छी कनेक्टिविटी होने के चलते भी अलीगढ़ व्यापारिक रूप से एक महत्वपूर्ण शहर है। सराय हकीम पर स्वामित्व हकीम असद अली का था । यह उस समय के प्रसिद्ध चिकित्सक थे। इन्हीं के नाम पर आज सराय हकीम मोहल्ला बसा हुआ है अन्य सराय भी हैं, जो आज भी उनके मालिकों के नाम से जानी जाती हैं। सराय रहमान, सराय लवरिया, सराय बेर, सराय सुल्तानी, सराय भूखी का जिक्र भी प्रमुखता से मिलता है। इसके अलावा पुराने बाजारों में तुर्कमान गेट, सासनीगेट, अलीगढ़ दरवाजा, पैरोंगंज जिसे आज महावीरगंज भी कहा जाता है का जिक्र भी मिलता है। कनवरीगंज का जिक्र कुमारी गंज के रूप में मिलता है।

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