अलीगढ़, 18 अक्टूबरः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर लतीफ हुसैन शाह काज़मी ने दारुल इस्लाम इंस्टीट्यूट (डीआईआरआई), फारसी और साहित्य विभाग, ढाका विश्वविद्यालय, बांग्लादेश द्वारा ‘सूफी संगीत, सिद्ध मानवता और दिव्य प्रेम’ पर आयोजितएक अंतर्राष्ट्रीय ई-सम्मेलन में मुख्य भाषण प्रस्तुत करते हुए कहा कि ‘सुफी-कविता, संगीत (मौसिकी) या समा इस्लामी दुनिया की सांस्कृतिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और समय के साथ इसने मानव जीवन के आध्यात्मिक आयाम से संबंधित एक आवश्यक पवित्र कला का रूप धारण कर लिया है। वह ‘सूफी परंपरा में समा (ऑडिशन) की अवधारणा’ विषय पर बीज भाषण प्रस्तुत कर रहे थे।
प्रो काज़मी ने कहा कि इस्लामी कला और आध्यात्मिकता पर कोई भी चर्चा संगीत (सामा) के उल्लेख के बिना पूरी नहीं समझी जाती है। उन्होंने जोर देकर कहा कि अधिकांश सूफी इस बात पर सहमत हैं कि समा का दैवीय प्रभाव है और भक्ति की भावना, ईश्वर के साथ एकत्व और मानवता, सार्वभौमिकता और शांतिपूर्ण जीवन के प्रति जागरूकता उत्पन्न करता है।
प्रो काज़मी ने इखवान अल-सफ़ा, अल-किंडी, अल-फाराबी, इब्न-ए-सीना, इब्न-ए-जैला, राज़ी, इब्न-ए-खलदून, अल-ग़ज़ाली, तुसी सहित महान इस्लामी संतों और सूफ़ियों के विचारों पर प्रकाश डाला। रूमी और अली हुजवैरी और अल-ग़ज़ाली और रूमी का संदर्भ प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि ‘भक्ति संगीत सुनना’ व्यक्ति के हृदय को प्रफुल्लित, आध्यात्मिक रूप से उन्मुख और देवत्व की ओर आकर्षित करता है। उन्होंने कहा कि संगीत बीमार लोगों के लिए स्वास्थ्यवर्धक है और पारस्परिक संपर्क के लिए एक शक्तिशाली माध्यम है।
अली हुजवैरी का हवाला देते हुए प्रो काज़मी ने कहा कि ‘यदि कोई भी व्यक्ति यह कहता है कि उसे ध्वनियों और धुनों और संगीत में कोई आनंद नहीं मिलता तो वह अवश्य ही एक पाखंडी है या वह अपने विवेक में नहीं है और पुरुषों और जानवरों की श्रेणी से बाहर है’।
उन्होंने तर्क दिया कि ‘स्वार्थी भौतिकतावादी पुरुषों के बीच वैमनस्य से भरी वर्तमान दुनिया में प्रेम, सहिष्णुता, शांति, सद्भावना और बहुलवाद के मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए समा पर फिर से कार्य करने और इसे पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है’।
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