फारसी भाषा एक समय में सरकारी भाषा रही है और भारत के के मध्यकालीन इतिहास को फारसी भाषा जाने बिना नहीं समझा जा सकता :प्रो. तारिक मंसूर

अलीगढ़ / अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के फारसी शोध संस्थान के तत्वाधान में पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के आरम्भिक युग में फारसी साहित्य की धरोहर विषय पर तीन दिवसीय सेमीनार का आयोजन किया गया है।कला संकाय के लाउंज में सेमीनार के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रोफेसर तारिक मंसूर ने कहा कि फारसी भाषा एक समय में सरकारी भाषा रही है और भारत के मध्यकालीन इतिहास को फारसी भाषा जाने बिना नहीं समझा जा सकता। उन्होंने कहा कि उपनिवेशवादी युग में ब्रिटिश सरकार ने असंख्य फारसी पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवार कराया ताकि वह भारत के इतिहास और जनता के मानस को समझ सकें। उन्होंने कहा कि फारसी आज भी महत्वपूर्ण है क्यों कि पश्चिमी एशिया के एक बड़े क्षेत्र में यह भाषा बोली और समझी जाती है।प्रोफेसर मंसूर ने कहा कि शिक्षण प्रशिक्षण तथा शोध के लिए जुनून चाहिये होता है तथा इसके बिना उच्चस्तरीय शोध कार्य नहीं किया जा सकता। उन्होंने अमुवि के कई भाषा विभागों को भारतीय परिप्रेक्ष्य में अति महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि अमुवि की उर्दू, अरबी, फारसी तथा इस्लामिक स्टडीज़ विभागों के कारण पूरे विश्व में ख्याति है। उन्होंने इन विभागों को हरसंभव सहायता का विश्वास दिलाते हुए सेमीनार में विदेशों से पधारे विद्वानों का स्वागत किया।जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर हिस्टारीकल स्टडीज के प्रोफेसर नज़फ़ हैदर ने “पन्द्रहवीं शताब्दी के भारत में फारसी भाषा तथा अन्य भाषाओं के साथ इसका संबंध“ विषय पर मुख्य भाषण प्रस्तुत करते हुए कहा कि इस काल में फारसी तथा अन्य भारतीय भाषाओं ने एक दूसरे से प्रभाव ग्रहण किया तथा धीरे-धीरे फारसी भारत के अंदरूनी भागों तक पहुॅच गई। उन्होंने कहा कि सूफीवाद ने इस भाषा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा विभिन्न भाषाओं के मिश्रण से एक ऐसी भाषा की उत्पत्ति का प्रारंभ हुआ जिसे बाद में हिन्दवी अथवा उर्दू का नाम दिया गया। उन्होंने कहा कि नसीरउद्दीन चिराग जैसे कई प्रख्यात सूफी संतों के जीवन सेवाओं तथा प्रवचनों पर आधारित कई पुस्तकें लिखी गई जिन्होंने समाज के मार्गदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।मुख्य अतिथि फारसी शोध केन्द्र ईरान कल्चरल हाउस नई दिल्ली के निदेशक डा0 ऐहसानउल्लाह शुकरूल्लाही ने अपने संबोधन में कहा कि फारसी भाषा की शिक्षा इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें मानव सभ्यता एवं संस्कृति का एक बड़ा खजाना संरक्षित है। जिसको बचाये रखना हमारी जिम्मेदारी है।अमुवि फारसी शोध केन्द्र की पूर्व निदेशिका प्रोफेसर आजरमी दुख्त सफवी ने कहा कि पन्द्रहवीं शताब्दी में फारसी भाषा भारतीय संस्कृति में रच-बस गई तथा सूफी संतों ने इसे जनमानस का हिस्सा बना दिया।इससे पूर्व फारसी अध्ययन एवं शोध केन्द्र तथा सेमीनार के निदेशक प्रोफेसर सैयद मुहम्मद असद अली खुर्शीद ने अतिथियों का स्वागत करते हुए सेमीनार के विषय पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि पन्द्रहवीं तथा सोलहवी शताब्दी का काल फारसी भाषा एवं साहित्य तथा इससे जुड़ी संस्कृति के विकास में विशेष महत्व रखता है। तथा इस काल में भारत के विभिन्न क्षेत्रों जैसे जौनपुर, बदायूॅ, मांडू, दौलताबाद तथा दक्षिण आदि में फारसी भाषा एवं साहित्य का विशेष प्रचार-प्रसार देखने को मिलता है। उन्होंने कहा कि लोधी राजाओं ने, विशेषकर सिकंदर लोधी ने कई प्राचीन भारतीय भाषाओं एवं संस्कृत की पुस्तकों का फारसी में अनुवाद करवाया।इस अवसर पर तेहरान यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष के सलाहकार प्रोफेसर सैयद अहमद रज़ा खि़ज़री तथा अमुवि फैकल्टी ऑफ आर्ट्स के डीन प्रोफसर मसूद अनवर अल्वी ने भी सेमीनार को संबोधित किया। फारसी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर एस0एम0 असगर ने धन्यवाद ज्ञापित किया जब कि डा0 मुहम्मद ऐहतशामउद्दीन ने कार्यक्रम का संचालन किया। इस अवसर पर फारसी शोध केन्द्र अमुवि द्वारा प्रकाशित 6 पुस्तकों का विमोचन भी किया गया।

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