भ्रष्टाचार। हर राजनीतिक दल सत्ताधारी दल पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए चुनाव में मतदाता को अपनी ओर खींचने का प्रयास करता है। हर दल का दावा होता है कि सत्ता में आने के बाद वह पूरी व्यवस्था को भ्रष्टाचार मुक्त कर देगा। मगर होता इसके उलट है। हर साल भ्रष्टाचार की दर कुछ बढ़ी हुई ही दर्ज होती है। भारत की गिनती सर्वाधिक भ्रष्टाचार वाले देशों में की जाती है।
ऐसे में यह नई बात नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय ने छत्तीसगढ़ सरकार में मुख्य सचिव रहे एक प्रशासनिक अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सुनवाई करते हुए इस प्रवृत्ति को कैंसर बताया। अदालत ने कहा कि यह पूरे समुदाय के लिए शर्म की बात है कि हमारे संविधान निर्माताओं के मन में जो ऊंचे आदर्श थे, उनका पालन करने में लगातार गिरावट आ रही है।
यह बात हर कोई स्वीकार करता है कि भ्रष्टाचार के चलते धन के समान वितरण का संवैधानिक तकाजा कहीं हाशिए पर चला गया है, मगर इस पर अमल कम ही लोग करने को तैयार दिखते हैं। इसलिए हैरानी की बात नहीं कि जिस दिन सर्वोच्च न्यायालय ने अदालतों को यह नसीहत दी कि उन्हें भ्रष्टाचार के मामलों में किसी भी तरह की रियायत नहीं बरतनी चाहिए, उसी दिन कर्नाटक और झारखंड में रिश्वत से जमा की गई भारी रकम पकड़ी गई।
हमारे देश में अब यह सर्वस्वीकृत तथ्य है कि बिना रिश्वत के कोई काम नहीं हो सकता। विकास परियोजनाओं में ठेकेदारी पानी हो, सरकारी नौकरी पानी हो, यहां तक कि तहसील-तालुका से अपनी जमीन-जायदाद के कागजात हासिल करने हों, तो बिना रिश्वत के काम नहीं चल सकता। बहुत सारे सरकारी विभागों में तो अलग-अलग काम के लिए बकायदा दरें निर्धारित हैं।
हर ठेके में ऊपर से लेकर नीचे तक के अधिकारियों-मंत्रियों आदि के कमीशन तय होते हैं। विचित्र तो यह भी है कि बहुत सारी जगहों पर किसी अधिकारी से मिलाने तक के लिए चपरासी पैसे मांग लेता है। इस तरह सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार खुल्लम खुल्ला चलता है। यह कोई छिपी बात नहीं है। एक सामान्य आदमी भी किसी मामूली सरकारी कर्मचारी के ठाठ-बाट से अंदाजा लगा सकता है कि उसकी ‘ऊपरी’ कमाई कितनी होती होगी।
हालांकि केंद्र और राज्य सरकारों ने बहुत सारे कामों में पारदर्शिता लाने के मकसद से खिड़कियों पर कतार लगाने और अधिकारियों के चक्कर काटने की परंपरा खत्म करके इंटरनेट के जरिए काम कराने की व्यवस्था कर दी है। पर हकीकत यही है कि इसके बावजूद भ्रष्टाचार का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है।
भ्रष्टाचार की जड़ें सबको पता हैं। हर मंत्री और अधिकारी उन्हें पहचानता है, मगर दिक्कत यह है कि भ्रष्टाचार मिटाने का संकल्प सिर्फ नारों तक सिमट कर रह गया है। उसके लिए कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती। जब खुद मंत्री और उनके सचिव इस खेल में शामिल पाए जाते हैं, तो भ्रष्टाचार को मिटाने की उम्मीद भला किससे की जाए। एक बार चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधियों की संपत्ति में कई सौ गुना की वृद्धि देखी जाती है।
पिछले कुछ सालों में पड़े आयकर और प्रवर्तन निदेशालय आदि के छापों में कितने ऐसे नाम उभर कर आए। मगर फिर खुद राजनीतिक दल ऐसी कार्रवाइयों को बदले की भावना से उठाए जा रहे कदम बताने पर तुल जाते हैं। इस आरोप को खारिज भी नहीं किया जा सकता। हर सत्तापक्ष भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर ऐसा भेदभाव करता दिखता रहा है। इसलिए भ्रष्टाचार की जड़ों पर तब तक प्रहार संभव नहीं है, जब तक कि राजनीतिक नेतृत्व इसे लेकर खुद गंभीर न हो।
साभार: NARENDER KUMAR
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