देश के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले कामगार अपनी मेहनत के बदले उचित पारिश्रमिक और भविष्य को लेकर तो आए दिन व्यवस्था से जूझते ही रहते

 


चिंता: मजदूर का दुःख 

यह अपने आप में एक बड़ी विडंबना है कि देश के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले कामगार अपनी मेहनत के बदले उचित पारिश्रमिक और भविष्य को लेकर तो आए दिन व्यवस्था से जूझते ही रहते हैं, रोज उन्हें ऐसी स्थितियों से गुजरना पड़ता है, जिनमें कभी भी उनकी जान जा सकती है। हाल ही में आए एक आंकड़े के मुताबिक, देश के पंजीकृत कारखानों में होने वाले हादसों में रोजाना औसतन तीन लोगों की मौत हो जाती और ग्यारह लोग घायल हो जाते हैं।


अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर पंजीकृत कारखानों में यह तस्वीर है तो असंगठित क्षेत्र में क्या हालत होगी, जहां किसी तरह के नियम-कायदे का पालन करना जरूरी नहीं समझा जाता। इस तरह के मामलों में पीड़ित तबका आमतौर पर बेहद गरीब और उपेक्षित होता है, इसलिए उनकी पीड़ा और अधिकारों की अनदेखी भी आम है


मगर अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कारखानों में होने वाली दुर्घटनाओं की वजह से मजदूरों की मौतों के बढ़ते मामलों को गंभीरता से लिया है।

दरअसल, हाल ही में केंद्रीय श्रम मंत्रालय के एक संस्थान से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर एक लेख में बताया गया कि 2018 से 2020 के दौरान औद्योगिक इकाइयों में होने वाले हादसों में कम से कम तीन हजार तीन सौ इकतीस लोगों की मौत हो गई। मगर अफसोसनाक यह है कि ऐसी दुर्घटनाओं के लिए महज चौदह लोगों को सजा हो पाई। इसी मसले पर मानवाधिकार आयोग ने खुद संज्ञान लेते हुए सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों और श्रम सचिवों को नोटिस जारी किया है और उनसे कारखानों में होने वाली दुर्घटनाओं में मजदूरों की मौतों का ब्योरा उपलब्ध कराने को कहा है।

आयोग ने यह भी माना है कि देश में पंजीकृत कारखाने काफी कम हैं। इसके समांतर जो कारखाने पंजीकृत नहीं हैं, उनमें हुए हादसों और मजदूरों के हताहत होने का श्रम विभाग के पास कोई ब्योरा नहीं होता है। बल्कि पंजीकृत औद्योगिक इकाइयों में जितनी दुर्घटनाएं होती हैं, उनमें भी जानमाल की क्षति को कितने वास्तविक रूप में दर्ज किया जाता है, यह कहा नहीं जा सकता।

ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि हाशिये के तबके के रूप में पहले ही कई तरह की वंचनाओं और अधिकारों के हनन के शिकार मजदूरों को किस त्रासदी से गुजरना पड़ता होगा। कहने को सरकार ने मजदूरों की सुरक्षा और सेहत को लेकर नई संहिता बना दी है। लेकिन जमीनी स्तर पर आज भी इससे संबंधित प्रावधानों को अमल में नहीं लाया जा सका है। 

जबकि अक्सर ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जिनमें सरकारें किसी नियम को लागू करने को लेकर बेहद संवेदनशील होती हैं और इसका उल्लंघन करने के आरोपी खासतौर पर कमजोर तबकों के लोगों को कई बार सख्त सजा भुगतनी पड़ती है। मगर कारखानों में हुई दुर्घटनाओं और उसके लिए जिम्मेदार लोगों या मालिकों तक के प्रति या फिर पीड़ितों को मुआवजे की नीति को लेकर सरकार को यही सजगता दिखाने की जरूरत नहीं लगती।

गौरतलब है कि देश में नब्बे फीसद से ज्यादा मजदूर असंगठित क्षेत्र में और दिहाड़ी पर काम करके गुजारा करते हैं, जहां न केवल उनकी मजदूरी की हकमारी होती है, बल्कि बुनियादी मानवाधिकारों का भी हनन होता है। यों कामगारों के अधिकारों और काम करते समय उनकी सुरक्षा का मसला शायद सबसे ज्यादा चर्चा का विषय रहा है। लेकिन आज भी अगर इसका कोई ठोस हल नहीं निकल सका है और अनेक मजदूर महज अव्यवस्था और लापरवाही की वजह से जान गंवा बैठते हैं तो इसके लिए किसकी जिम्मेदारी तय की जाएगी?

साभार: Copy Link

NARENDRA 









Post a Comment

0 Comments