भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की तीन विचारधाराएं... महात्मा गांधी, भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस

 


भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की तीन विचारधाराएं... महात्मा गांधी, भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस। तीनों की भारत के भविष्य को लेकर अपनी अवधारणा थी...एक सपना था। उनके विचारों से जानिए कैसा भारत चाहते थे हमारी क्रांति के प्रणेता। शायद यही सबसे सशक्त राष्ट्र की परिकल्पना है...


गांधी जी: ऐसा देश बने जहां का हर गांव आत्मनिर्भर हो

महात्मा गांधी अंग्रेजों के इस प्रचार के विरोध में थे कि भारत प्रजातंत्र के काबिल नहीं है। वे मानते थे कि भारत में विचार-विमर्श व तर्क आधारित राज स्थापित हो। भारतीय समाज को तर्क के प्रति सजग और सहज बनाने के लिए जरूरी था कि जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर बंटा भारतीय समाज अहिंसा का पालन करे ताकि वाद-विवाद की संभावना बन सके।



वे चाहते थे कि नागरिक हर हाल में निर्भीक रहें। विषम से विषम परिस्थिति में भी अपनी बात कहने के लिए खुद को स्वतंत्र महसूस करें। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के लिए कांग्रेस में हुई वोटिंग में 13 सदस्यों ने विरोध में वोट दिया था। गांधी जी ने उनका अभिवादन करते हुए कहा कि बिना किसी डर के आगे जाकर अपनी राय व्यक्त करने की आजादी ही भारत को ताकतवर बना सकती है। वे चाहते थे कि भारत विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रणी रहे लेकिन ये सुनिश्चित हो कि नई तकनीक की वजह से कामगार का काम आसान हो, ना कि लोग बेरोजगार हो जाएं। इसीलिए वे गांवों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि देश का हर गांव अपनी हर जरूरत पूरी करने और हर हाथ को रोजगार देने में सक्षम हो। उनका मानना था कि गांवों में सरकारी मशीनरी काम करे, मगर सरकार का दखल कम से कम हो।


भगत सिंह: सभी शिक्षित हों, सरकार पर जनता करे राज

लाहौर हाइकोर्ट में सुनवाई के दौरान भगत सिंह ने कहा था कि ‘क्रांति की तलवार को विचाररूपी पत्थर पर ही तेज किया जा सकता है।’ भगत सिंह अपने समय के सबसे पढ़े-लिखे स्वतंत्रता सेनानियों में से एक माने जाते थे। लाहौर से लेकर आगरा तक उन्होंने पुस्तकालय खोले थे ताकि सेनानियों का अध्ययन प्रशिक्षण होता रहे। उनका इस बात पर खास जोर था कि किसी भी विचारधारा का विरोध करने से पहले आप स्वयं को ज्ञान के हथियार से लैस कीजिए। उस विचारधारा को समझिए जिसका आप विरोध कर रहे हैं। खास बात ये कि इतना अध्ययन उन्होंने 17 वर्ष की आयु में शुरू कर 23 वर्ष की आयु में फांसी पर चढ़ने से पहले ही कर लिया था। वो ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते थे जो ज्ञानमार्गीय हो ताकि 98% जनता का उन 2% लोगों पर राज हो जिन पर सरकार और उद्योग चलाने की जिम्मेदारी है। वे भारत के वर्तमान और भविष्य के लिए साम्प्रदायिकता, जातिवाद और मानव के शोषण की व्यवस्था को सबसे बड़ा खतरा मानते थे। उनका मानना था कि अंग्रेजों का राज देश से जाने के बाद भी क्रांति नहीं रुक सकती। यह क्रांति तभी पूरी होगी जब देश साम्प्रदायिकता और जातिवाद से पूरी तरह मुक्त होगा। और इसके लिए वे हर नागरिक का पूरी तरह शिक्षित होना जरूरी मानते थे।


सुभाषचंद्र बोस: देश पर आंख न उठा सके दुश्मन

नेताजी सुभाषचंद्र बोस राष्ट्र के अंदरूनी मामलों में गांधी जी के अहिंसा मार्ग के पक्षधर थे। वे ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था। वे नहीं चाहते थे कि आजाद देश में नागरिक को हथियार उठाने पड़ें। वे चाहते थे कि भारत एक ऐसा समाजवादी लोकतांत्रिक राष्ट्र बने जिसमें अन्याय की गुंजाइश न हो। एक ऐसा ताकतवर राष्ट्र, जो मित्रों को शांतिप्रियता से आकर्षित तो करे लेकिन दुश्मनों को आंख उठाने का मौका न दे। वे चाहते थे कि भारत की सैन्य ताकत विश्वस्तरीय हो। वे एक यथार्थवादी राजनेता थे जो राष्ट्रहित में दुश्मन के दुश्मन से दोस्ती में परहेज नहीं करते थे। वे मानते थे कि आर्थिक विकास न्यायपूर्ण होना चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति में रूढ़िवाद को वे सबसे बड़ी बाधा मानते थे। उनका कहना था कि रूढ़िवाद को तोड़ने के लिए सबसे जरूरी महिलाओं को सशक्त करना है। उनका मानना था कि इसके लिए महिलाओं को बिना शर्त सेना सहित हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी। उनका नारा जयहिंद था, और उनका कहना था कि सही अर्थों में जयहिंद तभी होगा जब बाहरी शक्तियों के विरुद्ध भारतीय समाज हर हाल में एकजुट रहे, शस्त्र का इस्तेमाल भी शास्त्रसम्मत हो और समाज में महिलाओं को सशक्त किया जाए।


साभार: नेहा संवारिया

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