लॉकडाउन में जब सब कुछ ठहर गया तो अचानक मैं यूट्यूब के रास्ते पर चल पड़ा l

लेखक : अजीत अंजुम
दोस्तों के नाम …..
लॉकडाउन में जब सब कुछ ठहर गया तो अचानक मैं यूट्यूब के रास्ते पर चल पड़ा . शुरुआत पैदल जा रहे मजदूरों के वीडियो बनाने से हुई और यूट्यूब पर आ गया . पता है कि कठिन , लंबा और संघर्ष वाला रास्ता है लेकिन सुकून है अपने मन का रास्ता है . जब अपने मन लायक कुछ और होगा तो कुछ और करेंगे , फिलहाल डिजीटल रास्ते पर . किसी ने कहा ये देखो इनका क्या हाल हो गया कि अब यूट्यूब पर आना पड़ा . तो ये जवाब उन सबके लिए भी है .
बहुत दिनों से सोच रहा था कि क्या लेकर हम दिल्ली आए थे ? एक छोटा सा ब्रीफकेस, कुछ कपड़े , मां-बाबूजी से मिले कुछ पैसे , उनके सपनों का बोझ और बेशुमार हौसला . मेहनत करते रहे . लड़ते -गिरते -उठते एक जगह बना ली और बहुत कुछ पा लिया , जो सोचा नहीं था . बीते कुछ सालों से मन बेचैन था . दो बार लाखों की नौकरी छोड़ दी . दोनों बार नौकरी छोड़ने से सुकून ही मिला . अब भी सुकून में हूं कि वो सब नहीं करना पड़ रहा है , जो लोग कर रहे हैं . मुझे भी या तो यही सब करना पड़ता , या छोड़ना पड़ता . तो इस लिहाज से एक तरफा हो चुके इस मायावी सिस्टम से मेरा निकलना तो तय था . बीच -बीच में कुछ लखटकिया विकल्प आए लेकिन वहां भी फंसने का खतरा था . मैं किसी ऐसे प्लेटफार्म के लिए काम नहीं करना चाहता , जहां मन के विपरीत काम करना पड़े . भीतर की आवाजें ही सुनता हूं अब . वही सुनना भी चाहता हूं . कल को बेहतर कुछ दिखेगा तो मन के पैमाने पर जांच -परखकर सोचूंगा कि क्या करना है . फिलहाल तो यही सही .
तो मैं अपने को तीस साल पीछे ले जाने को तैयार हूं . हमेशा लगता है कि नए सिरे से सब कुछ शुरु करुं . वैसे ही जैसे, 23-24 साल की उम्र में रिपोर्टिंग किया करता था . वैसे ही जैसे, खबरों के लिए दिन रात भटका करता था . वैसे ही , जैसे किसी सत्ता या सिस्टम के खिलाफ लिखने -बोलने में रत्ती भर भी परहेज नहीं करता था . उसी उर्जा और उसी हौसले के साथ . पच्चीस साल तक संपादक रहकर सैकड़ों लोगों की टीम को हेड किया . बनाया , जमाया , सिखाया ,संवारा . पचासों लोगों को लाखों की नौकरी दी . सैकड़ों को रास्ता दिखाया . आज अपने माजी में झांकता हूं तो लगता है ये सब पाने या मिलने की उम्मीद लिए मैं दिल्ली आया था क्या ? नहीं आया था . तो मुझे क्यों इन चीजों के बारे में सोचना चाहिए ? यकीन मानिए कभी नहीं सोचता . जो छोड़ दिया , वो छोड़ दिया . ये भी सुकून है कि खुद छोड़ा . छह या सात बार नौकरियां छोड़ी . हर बार खुद छोड़ी .
हर बार अचानक इस्तीफा देकर निकला . रोकने की कोशिशें लगातार हुई लेकिन मैंने खुद तय किया और निकल गया . पलटकर नहीं देखा . अशुभचिंतक जमात जो भी अफवाह फैलाए , हकीकत मेरे पास दर्ज है . मय सबूत . मैं संपादक के ओहदे वाले अहसास से सालों पहले मुक्त हो चुका था . अब तो बहुत आगे निकल चुका हूं , सो मेरे कुछ ‘चाहने वाले’ मेरी ‘चिंता ‘ में परेशान न हों . जो उनके पास आज है , वो अगर पाना और रखना चाहता तो टिका रहता वही सब करके , जो वो आज कर रहे हैं .
अब बात उस अतीत पर करने की बजाय भविष्य पर केन्द्रित रखना चाहता हूं . एक माइलस्टोन के बाद दूसरा माइलस्टोन शुरु होता . पीछे जो छूट जाता है , वो अतीत होता है . आगे जो दिखता है , वो भविष्य होता है . मैं भविष्य के गर्भ का कैदी कभी नहीं रहा .
आज हैरान होता हूं कि जिन्होंने जीवन में कभी दो अखबार भी कायदे से नहीं पढ़ा , दो -चार किताबें नहीं पढ़ी , कायदे का दो -चार लेख नहीं लिखा , जिनकी कॉपी ठीक कर करके उन्हें काम लायक बनाया , जिन्हें टीवी कैमरों के सामने बोलना सिखाया , जिनके सामने से स्पीड ब्रेकर हटाकर हिचकोलों से बचाया , जिन्हें रफ्तार के रास्ते पर आगे बढ़ाया , जो जानते हैं कि किसी भी सत्ता की चाटूकारिता मेरी फितरत कभी नहीं रही , और जिन्हें मैं कुछ सालों से पादूका पूजन करते और कई तरह के प्रसाद के लिए लालालित होते देख रहा हूं , वो भी मुझे पत्रकारिता सिखाने आ जाते हैं .
ये सब 2014 के बाद के कायांतरण का नतीजा है . उन सबको उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं . मैं ऐसा ही 2014 के पहले था . ऐसा ही 2024 या 2029 के बाद भी रहूंगा .
अगर मेरे लिखे में कहीं आपको आत्ममुग्धता या अहंकार दिखे तो माफी चाहूंगा . इतना तो लिखना बनता है न , जब कोई भी आकर कुछ भी कह देता है तो मुझे भी तो कुछ कहने का हक है न ?
उन सबका शुक्रिया ,जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान अचानक शुरु हुए मेरे यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइव किया.
नोट: यह पोस्ट पत्रकार अजीत अंजुम के फेसबुक वॉल से ली गई है। कॉपी :- khabaradda

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