सुरेंद्र दुबे
इसी तरह कई बार ऐसे दृश्य देखने को मिलते थे जब जनता का कोई व्यक्ति आवेश में आकर नेताजी पर टिप्पणियां करने लगता था। जो कई बार अशोभनीय सी भी लगती थी, पर मजाल है कि नेताजी के चेहरे पर शिकन आ जाए। वो मुस्कुराते हुए उस व्यक्ति को गले लगा लेते थे या कुछ ऐसा उपक्रम करते थे कि उस व्यक्ति का आक्रोश थम जाता था। जनता कहती थी-देखा नेताजी ने कैसे निपटाया। उसके साथी लोग कहते थे-अरे भाई, वर्षों से नेतागिरी कर रहे हैं, अब बात-बात पर अगर नाराज हो जायेंगे तब तो चल चुकी इनकी नेतागिरी।
पर पिछले पांच-छह वर्ष से सत्ता का नशा कुछ ऐसा चढ़ा है कि नेताओं का चरित्र बदलने लगा है। अब नेता ने सहनशीलता का चोला उतार दिया है। सत्ता पहले भी एक नशा थी, पर अब लगता है कि ब्रांड बदल गया है। पहले सत्ता में नशे में चूर होने के बावजूद नेता बहुत ही सहनशील तथा एडजस्टिंग होता था। उसको डर रहता था कि कहीं उसकी तुनकमिजाजी या नखरे से उसकी भद्द न पिट जाए। कहीं पार्टी हाईकमान उनकी क्लास न ले ले। पर अब मामला बिल्कुल पलट गया है। नेता को न समाज का डर है और न ही पार्टी का। क्योंकि राजनीतिक दलों में नेता बनने के लिए सहनशीलता अब कोई शर्त नहीं रह गई है। शर्त सिर्फ एक है कि चुनाव में जीत मिलनी चाहिए। अब वह चाहे दबंगई से मिले या धनबल से। इसलिए नेता चुनाव जीतने के बाद पार्टी और जनता दोनों की बहुत परवाह नहीं करता। पार्टी में उसे कोई सज्जनता सिखाने की कोशिश करेगा तो दूसरे दल में चला जायेगा। जनता को वह छलबल, धनबल और प्रचार की आंधी में पटा लेने का माहिर हो गया है।
कई बार जनता खुद आश्चर्यचकित रह जाती है कि जिन नेताजी के भाषणों से प्रभावित होकर उन्होंने वोट दिया था, वो तो ये नहीं थे। पर ‘अब पछताए होत क्या-जब चिडिय़ा चुग गई खेत’इस बदले परिदृश्य के कारण आए दिन नेताओं और जनता में टकराव की घटनाएं सामने आने लग गई हैं।
हमारे संविधान ने जहां सबको कुछ मौलिक अधिकार दिए हैं, वहीं एक-दूसरे का सम्मान करने तथा जहां तक संभव हो सहिष्णु बने रहने का प्रावधान किया है। भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और उदार समाज की गारंटी देता है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है।
विधायिका, चूंकि हमारे लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण अंग है इसलिए नेताओं पर ये नैतिक तथा संवैधानिक जिम्मेदारी भी है कि वे एक ऐसा आदर्श निरंतर प्रस्तुत करते रहे जिससे पता चलता रहे कि नेताजी बहुत ही विनम्र, मृदुभाषी तथा सहिष्णु हैं। हो सकता है कि
आजकल तो सोशल मीडिया का जमाना है। ऐसे में नेताओं की एंटीसोशल थिंकिंग चिंता का विषय है। अब अगर आप लोगों को अपने विचार व्यक्त ही नहीं करने देंगे तो किस बात का सोशल मीडिया और किस बात की अभिव्यक्ति की आजादी। जैसा कि मैंने पहले ही कहा था कि विधायिका को अतिरिक्त सद्भाव व सहिष्णुता का परिचय देना होगा, क्योंकि लोकतंत्र ने उन्हें संविधान के अनुरूप समाज के संचालन का दायित्व सौंप रखा है। पर अगर लोग बात-बात में लडऩे-भिडऩे लग जायेंगे तो फिर लोकतंत्र का तानाबाना बिखर जायेगा।
आइये नेताओं के बढ़ते नखरे और बढ़ती असहिष्णुता के मामलों का सिलसिलेवार विश्लेषण करते हैं।
आइये देखते हैं कि उत्तराखंड का ताजातरीन मामला क्या है। उत्तराखंड में एक युवक को मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ सोशल मीडिया पर कथित तौर पर आपत्तिजनक पोस्ट करने के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। आरोपी को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (सीजेएम) के समक्ष पेश किया गया, जहां से उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।
दरअसल उत्तरकाशी जिले के डायरिका गांव के किसान राजपाल सिंह (34) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित कर एक पत्र 13 जुलाई को फेसबुक पर पोस्ट किया था। इस पत्र में उन्होंने कथित तौर पर मुख्यमंत्री रावत के खिलाफ आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहा था कि मुख्यमंत्री योजनाओं के क्रियान्वयन में सक्षम नहीं हैं।
सिर्फ उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में ही सीएम के खिलाफ टिप्पणी करने पर गिरफ्तारी या केस दर्ज नहीं हो रहा बल्कि अन्य राज्यों में भी ऐसे मामले सामने आए। केरल में पिछले तीन सालों में मुख्यमंत्री पी विजयन के खिलाफ सोशल मीडिया पर कथित आपत्तिजनक टिप्पणियों को लेकर 119 लोगों के खिलाफ केस दर्ज किए गए हैं। इसके अलावा छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में भी सोशल मीडिया पर सीएम के खिलाफ टिप्पणी करने पर लोगों की गिरफ्तारी हुई।
अधिकांश मामले चूंकि सोशल मीडिया से ही संबंधित है इसलिए हम सबको मिलकर एक ऐसी आचार संहिता विकसित करनी होगी जो हमारी अभिव्यक्ति की आजादी की लाज बचाए रखे। जो टिप्पणियां सभ्यता के मानदंडो को तोड़ते हुए समाज का वातावरण दूषित करने का काम करे उन्हें दंडनीय कानूनों की श्रेणी में रखा जाए तो कोई खास दिक्कत नहीं होगी। परंतु कानून के नाम पर अगर हम हर समय चाबुक चलाने की मुद्रा में रहेंगे तो धीरे-धीरे सोशल डायलॉॅग ही बंद होने लगेगा, जो हमारी अभिव्यक्ति की आजादी को कुंठित करेगा, जिसकी लोकतंत्र में कोई जगह नहीं हो सकती। sabhar: Jubileepost
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