60 साल के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलेगा कि, मुस्लिमों के साथ हिंसा या दूसरी घटनाएं मोदी राज से कहीं ज्यादा हुई

मुसलमान डरे नहीं, वह सुरक्षित है

भोपाल। Muslim Community in Modi Government: मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद मुस्लिमों में भले ही डर का माहौल हो, मगर पिछले 60 साल के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलेगा कि, मुस्लिमों के साथ हिंसा या दूसरी घटनाएं मोदी राज से कहीं ज्यादा हुई हैं। नेता चुने जाने के बाद जो भरोसा नरेंद्र मोदी ने पूरे देश खासकर मुस्लिमों को दिलाया है, उसे समाज को स्वीकार करना होगा और सरकार के साथ चलना होगा।
यह सच है कि, सभी एग्जिट पोल सही साबित नहीं होते। लेकिन यह भी एक हकीकत है कि तमाम एग्जिट पोल गलत नहीं होते। आम चुनावों की मतगणना वाले दिन सुबह से आने वाले रुझानों पर पहले-पहल मुझे अचरज हुआ। फिर स्वयं को यह तसल्ली देकर समझाया कि यह अभी पोस्टल बैलट के रुझान हैं और आगे तस्वीर बदलेगी। लेकिन हर गुजरते पल के साथ भाजपा की स्थिति मजबूत होती गई। लगभग पूरे देश के नतीजे भाजपा के पक्ष में थे। इससे जहां यह मानने को मजबूर होना पड़ा कि एग्जिट पोल के अनुमान सही थे वहीं जेहन में एक मायूसी भी आहिस्ता-आहिस्ता घर कर रही थी। वह यह थी कि अब क्या होगा? सेक्यूलर शक्तियों की तो करारी शिकस्त हो चुकी है। अब इस देश के मुसलमानों का क्या होगा? उनका हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों की स्थिति तो पहले से भी बदतर हो गई है। ऐसे में अब उनकी सुरक्षा कौन करेगा? इसको लेकर एक डर और खौफ सा मन में बैठा जा रहा था। और यह कोई असामान्य बात नहीं थी। मेरे जैसे देश के दूसरे मुसलमानों की भी यही स्थिति रही होगी, क्योंकि सेक्यूलर और सांप्रदायिकता की एक खाई खींचकर उनके दिलों में दशकों से यही भरा जाता रहा है।
इसी उधेड़-बुन में मतगणना वाला दिन निकल रहा था। इसी दौरान मन में एक विचार आया कि इस देश के मुसलमानों की हालत पहले से ही कौन सी बेहतर है? फिर ना जाने क्यों मोदी सरकार के गत पांच वर्षो के कार्यकाल पर एक सरसरी निगाह दौड़ गई। सोच-विचार का यह सिलसिला आगे बढ़ते हुए कांग्रेस नीत 60 बरसों तक भी पहुंचा। जेहन में खुद ही लंबे अर्से तक चले तथाकथित सेक्यूलर दलों और काफी हद तक साम्प्रदायिक पार्टी के तौर दुष्प्रचारित भाजपा के कार्यकाल का आपस में मूल्यांकन करने को मजबूर हो गया। इससे यह नतीजा निकला कि भाजपा के गत पांच वर्ष मुसलमानों के लिए कांग्रेस या फिर धर्मनिरपेक्ष दलों के गठबंधन वाली सरकारों के मुकाबले बहुत खराब तो नहीं रहे। मॉब लिंचिंग की चंद घटनाओं को छोड़कर मुसलमानों पर अत्याचार या फिर ज्यादती की दीगर घटनाएं भी नहीं हुई। कम से कम दंगे तो काफी हद तक नियंत्रित रहे। फिर दंगे क्या भीड़ तंत्र का हिस्सा नहीं होते?
ऐसे में भीड़ के पागलपन को ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी शब्दावली गढ़कर उससे मुसलमानों को भाजपा से डराने का काम किया गया। जबकि उत्तरप्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगों के लिए पिछली अखिलेश यादव सरकार की ऐसे लोगों के जरिए कभी घेराबंदी नहीं की गई। फिर कांग्रेस तो वोटों के लिए स्वयं को मुसलमानों की सबसे बड़ी हितैषी होने और दिखाने का दावा करती रही है। इसके बावजूद कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल के दौरान 40 हजार से 60 हजार तक छोटे बड़े मुस्लिम विरोधी दंगे हुए। इसमें हाशिमपुरा, भागलपुर और मलियाना जैसे बड़े और वीभत्स साम्प्रदायिक दंगे शामिल हैं। फिर वर्ष 1992 में विवादास्पद बाबरी मस्जिद ढांचे को गिराए जाने के बाद देश में हुए सिलसिलेवार दंगों की एक लंबी फेहरिस्त है। इस दौरान उन्हें जान-माल की हानि हुई। यहां मॉब लिंचिंग की घटनाओं को तर्कसंगत ठहराना नहीं है लेकिन इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मॉब लिंचिंग की तुलना में दंगों में जान और माल नुकसान काफी ज्यादा होता है।
फिर बात जहां तक मुसलमानों के विकास के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं की है तो 6 दशक की तथाकथित धर्मनिप्रेक्ष सरकारों ने कौन सा उनके हालात में सुरखाब के पर लगा दिए? इस मुद्दत में तमाम राजनीतिक दल स्वयं को मुसलमानों का हितैषी बताकर केवल उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते रहे। फिर सरकार बनने के बाद न केवल उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया बल्कि एक गहरी साजिश के तहत उनकी स्थिति बद से बदतर करती रहीं। क्या कांग्रेस पार्टी को अपने नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के दौरान सामने आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट याद नहीं है? इस रिपोर्ट से यह तल्ख हकीकत उजागर हुई कि इस देश के मुसलमानों की शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति दलितों से भी बदतर हो चुकी है। इसके बावजूद देश का मुसलमान इन धर्मनिरपेक्ष दलों के वादों पर मरता रहा।
हालिया संपन्न हुए आमचुनाव में भी विपक्षी दलों के हिस्से आई अधिकतर सीटें मुसलमानों की ही देन हैं। उनके उम्मीदवार वहीं से विजयी रहे जहां पर मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका थे। इसके बरक्स मुसलमान कभी भी भाजपा का वोटर नहीं रहा। अलबत्ता इस लोकसभा चुनाव में कई जगहों पर पार्टी के खाते में पांच से 15 फीसद मुस्लिम वोट आने के दावे किए जा रहे हैं लेकिन यह सच है कि अब भी देश के मुसलमानों ने भाजपा से दूरी बनाए रखी है। इसके बावजूद भाजपा संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़ा दिल दिखाते हुए उनकी तरफ हमदर्दी का हाथ बढ़ाया है। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि इस देश के अल्संख्यकों को सांप्रदायिकता का भय दिखाकर उनके साथ छल किया गया और उन्हें केवल वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया गया। हमें इस छल को भेदना है। इसके लिए उन्होंने अपनी पिछली सरकार के नारे ‘सबका साथ, सबका विकास’ को और व्यपाक करते हुए उसमें सबका विश्वास भी जोड़ा है।
ऐसे में मुसलमानों को चाहिए कि प्रधानमंत्री के इस कदम का तहे-दिल से स्वागत करें और सरकारी योजनाओं में भागीदार बनें। वैसे भी नरेंद्र मोदी जम्हूरी तौर पर चुने गए इस सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री हैं और संवैधानिक तौर पर हमें इस हकीकत को स्वीकार करना ही पड़ेगा। अलबत्ता केंद्र की नई सरकार को अगर सबका साथ, सबका विकास में सबका विश्वास भी जोड़ना है तो उसे सरकार बनने के बाद फिर से शुरू हुए मॉब लिंचिंग के सिलसिले पर काबू पाना होगा। काबिलेजिक्र है कि हरियाणा के गुरुग्राम और बिहार के बेगूसराय में एक के बाद एक इस तरह की घटनाएं हुई हैं।
गौरक्षा और हिंदूवाद के नाम पर समाज में नफरत फैलाने वाले ऐसे असमाजिक तत्वों पर फौरी कार्रवाई करके अल्पसंख्यकों का विश्वास जीता जा सकता है। दूसरी तरफ देश का मुसलमान फिलहाल जिस स्थिति में है, उसके पास खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। रोजगार, तालीम और रुपए-पैसे से वह पहले ही महरूम है। ऐसे में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उसे खौफजदा होने या बहकावे में आने की बजाए केंद्र सरकार से अपने रिश्ते अच्छे रखकर अपनी समस्याओं को हल कराने पर जोर देना चाहिए। ताकि उनकी स्थिति में सुधार आए और वे देश की भलाई में अपना योगदान दे सकें। यह सबके हित में होगा।sorce :राज एक्सप्रेस 
मोहम्मद शहजाद (वरिष्ठ पत्रकार)

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