भारत: सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न का मामला

                 उच्च स्तरीय स्वतंत्र जांच की जरूरत
                               Photo : थर्ड पार्टी
Justice Ranjan Gogoi is the sitting Supreme Court Chief Justice of India.
                                  
न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न शिकायत की जांच में शिकायतकर्ता महिला के अधिकारों की रक्षा हो. हालांकि अदालत द्वारा 23 अप्रैल, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय के सेवारत तीन न्यायाधीशों की जांच समिति के गठन का फैसला न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करता है, लेकिन यह अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत गारंटीप्राप्त प्रभावकारी राहत तक पहुंच से महिला को वंचित कर सकता है.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि चूंकि यह मामला सर्वोच्च पद पर आसीन ऐसे अधिकारी से जुड़ा हुआ है जिन पर भारतीय संविधान और कानून के शासन की रक्षा की जिम्मेदारी है, अतः  इसपर हुए फैसले का भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायतों के मामले में दूरगामी असर होगा.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समानता और निष्पक्षता के सिद्धांतों के समर्थन का एक समृद्ध इतिहास है. अदालत के लिए जरूरी है कि वह यौन उत्पीड़न शिकायत की निष्पक्ष एवं विश्वसनीय जांच सुनिश्चित करके और शिकायतकर्ता महिला और गवाहों की सुरक्षा कर अपनी इस प्रतिष्ठा को बनाए रखे."
19 अप्रैल को, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के एक पूर्व जूनियर असिस्टेंट ने सुप्रीम कोर्ट के 22 जजों को सुपुर्द अपनी शिकायत में मुख्य न्यायाधीश द्वारा 2018 में अपने ऊपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया. इसके जवाब में, न्यायमूर्ति गोगोई ने उस महिला को सूचित किए बिना इस मामले की सुनवाई के लिए 20 अप्रैल को तत्काल तीन न्यायाधीशों की बेंच का गठन कर दिया. न्यायमूर्ति गोगोई ने सुनवाई की अध्यक्षता भी की, शिकायत को न्यायिक स्वतंत्रता पर हमला बताया और आरोपों को नामंज़ूर कर दिया.
इंडियन सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ने 20 अप्रैल की कार्यवाही और आदेश की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया की अवहेलना की है. इसके आलावा, अन्य वरिष्ठ वकीलों ने सार्वजनिक रूप से 20 अप्रैल की कार्यवाही की निंदा की.
भारत में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, महिला वकीलों और महिला अधिकार समूहों ने सार्वजनिक बयान और पत्र जारी कर सुप्रीम कोर्ट से जांच के लिए एक विशेष समिति बनाने की मांग की .
महिला द्वारा दायर हलफनामा में सहायक दस्तावेजों के साथ शिकायत का विस्तार से वर्णन  है. हलफनामा में केवल यौन उत्पीड़न की शिकायत का ही विवरण नहीं है, बल्कि इसमें  अक्टूबर 2018 से अप्रैल 2019 के बीच परवर्ती घटनाक्रमों- कार्यस्थल में महिला एवं उसके परिवार के सदस्यों के निलंबनों और निष्कासनों की एक श्रृंखला का भी ब्यौरा है, और मार्च में उनके परिवार के खिलाफ पुलिस द्वारा दर्ज एक नया आपराधिक मामला भी शामिल है. महिला ने कहा कि उत्पीड़न से निपटने में विफल रहने और अपने परिवार की सुरक्षा के डर से उसने आखिरकार शिकायत दर्ज करने के लिए अपनी चुप्पी तोड़ी.
मामले का सार्वजनिक रूप से तूल पकड़ने के बाद, न्यायमूर्ति गोगोई ने दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एस. ए. बोबड़े से सर्वोच्च न्यायालय की आगे की कार्रवाई तय करने को कहा और उन्होंने तीन न्यायाधीशों की जांच समिति का गठन किया. समिति के एक सदस्य न्यायमूर्ति एन. वी. रमना ने शिकायतकर्ता की इस आपत्ति कि वह न्यायमूर्ति गोगोई के "घनिष्ठ मित्र" हैं, के बाद खुद को समिति से अलग कर लिया.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रक्रिया निष्पक्ष और विश्वसनीय हो, सुप्रीम कोर्ट को समिति का पुनर्गठन करने और सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रतिष्ठित न्यायाधीशों और महिलाओं सहित नागरिक समाज के सदस्यों को इसमें शामिल करने पर विचार करना चाहिए. न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र के बुनियादी सिद्धांतों के अनुरूप, एक सेवारत न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत का "उचित प्रक्रिया के तहत निष्पक्ष और त्वरित निपटारा" किया जाना चाहिए.
उस महिला को जांच कार्यवाही में भाग लेने का उचित और समान अधिकार है, यह सुनिश्चित करने के लिए उसे अपनी पसंद के वकील के साथ समिति के समक्ष उपस्थित होने का मौका दिया जाना चाहिए. न्यायपालिका में जनता के विश्वास को बनाए रखने के लिए, न्यायमूर्ति गोगोई को जांच पूरी होने तक अपनी आधिकारिक जिम्मेदारी से अलग रहने पर विचार करना चाहिए.
अदालत को उक्त महिला, उसके परिवार के सदस्यों और गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए. साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि वे बगैर प्रतिशोध की आशंका से, मुक्त होकर गवाही देने और जांच कार्यवाही में भाग लेने में सक्षम हों.
1997 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न की रोकथाम और उस पर कार्रवाई के लिए ऐतिहासिक विशाखा दिशा-निर्देश पारित किया. संसद ने 2013 में कार्यस्थल में होने वाले यौन उत्पीड़न से सम्बंधित एक कानून बनाया. इस कानून में समितियों के माध्यम से यौन उत्पीड़न की शिकायतों के कार्यस्थल पर शिकायत निवारण के महत्वपूर्ण रास्ते बताये गए हैं.
2017 और 2018 में, भारत में और विश्व स्तर पर #MeToo आंदोलन ने न्याय की मांग उठाने वाली यौन उत्पीड़न पीड़िताओं की महत्वपूर्ण समस्याओं को उजागर किया, खासकर जब उन्होंने कार्यस्थल में ताकतवर पुरुषों द्वारा उत्पीड़न की शिकायत की. पीड़िताओं को ही दोषी ठहराना, डराना-धमकाना और पीड़ित तथा गवाहों की सुरक्षा और समर्थन का अभाव न्याय पाने की कोशिश में बहुत बड़ी बाधाएं हैं.
गांगुली ने कहा, "सर्वोच्च न्यायालय भारत के सबसे शक्तिशाली संस्थानों में से एक है और न्याय पाने की आख़िरी शरण-स्थली है. यदि यह निष्पक्षता और समानता के सिद्धांतों को बुलंद करता है, तो यह भारत और उसके बाहर उन महिलाओं के हौसला को बढ़ाएगा जो कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायतों के साथ सामने आईं हैं." साभार :Human Rights wach

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