भारतीय भाषाओं या बोलने वाले को कमतर समझा जाता है : डॉ. बैंकट

अलीगढ़ /मुस्लिम यूनिवर्सिटी के आधुनिक भारतीय भाषा विभाग के मराठी सेक्शन के तत्वावधान से चल रहे ‘‘भारतीय भाषाओं और साहित्य पर वैश्वीकरण का प्रभाव’’ इस विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन समारोह बड़े ही हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हुआ। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सह-कुलपति समापन सत्र के प्रमुख अतिथि थे। अध्यापकों एवं शोधार्थियों को संबोधित करते हुये उन्होनें कहा कि, ‘पूरी दुनिया का पूर्वी भाग अधिकतर वैश्वीकरण की चपेट में है। जिसके द्वारा वहां पर परिवारों की संरचना बदल रही है। पहले जहां एक व्यक्ति पर अपने परिवार से बात करने का समय रहता था, वर्तमान में वह समय मोबाइल, टेबलेट और लैपटॉप ने ले लिया है। जिससे रिश्तों की संवेदना दिन-प्रतिदिन गिरती हुयी प्रतीत होती है। वैश्वीकरण के कारण अंग्रेजी बोलने वाले को बहुत बुद्धिमान समझा जाता है और भारतीय भाषाओं या बोलियों में बोलने वाले को कमतर समझा जाता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि हम भाषाओं को एक दूसरे के प्रति वैमनस्य की दृष्टि से देख रहें हैं। जबकि वही भाषा सुदृढ़ और प्रभावी होगी जो अपने अंदर दूसरी भाषाओं को समाहित कर लेगी। यदि द्रविड़ियन भाषाओं की बात की जाये तो उन भाषाओं में संस्कृत, पाली जैसी प्राचीन भाषाओं का समावेष मिलता है। जिससे वो भाषाऐं अधिक सुदृढ़ प्रतीत होती हैं।’दिल्ली विश्वविद्यालय के आधुनिक भारतीय भाषा विभाग के तेलगु भाषा के डा. वैंकट रामैय्या अतिथि के तौर उपस्थित थे। उन्होने अपने वक्तव्य में कहा कि, ‘मैनें जितने भी शोध-पत्र सुने उनमें मुझे प्रतीत हुआ कि 80 प्रतिशत बुद्धिजीवियों ने वैश्वीकरण के नकारात्मक पहलुओं को दिखाया है।
जबकि सत्य तो यह है कि वैश्वीकरण गलत या सही होना दूसरी बात है, इस प्रतियोगिता के दौर में बुद्धिजीवी वही है जो वैश्वीकरण का प्रयोग अपनी कुशलता और बुद्धिक्षमता से स्वयं और समाज के हितों को साधने के लिये उपयोग करे। वैश्वीकरण के ही द्वारा आज भारत जैसे विकासशील देश में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्याक, ट्रांसजेन्डर और समलैंगिक जैसे विमर्श भी सामने आते है। जिससे उनके अधिकारों की बात बुद्धिजीवी अपने-अपने स्तर से उठा रहे हैं। जिस पर वैश्वीकरण का प्रभाव दिखाई देता है।’समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए उर्दू विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. मोहम्मद तारिक़ छतारी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि इस सेमीनार ने वैश्वीकरण को नई राह से सोचने पर दुबारा मज़बूर कर दिया। जिस तरीके से अंग्रेजी पूरी दुनिया की लिंक भाषा है, वैसे ही क्या वजह रही कि हिन्दी, उर्दू, तमिल, तेलगु, मराठी, मलयालम, कश्मीरी, पंजाबी, बंगाली जैसी अनेक भारतीय भाषाओं में चिकित्सा और प्रौद्योगिकी के विषय को उक्त ज़बानों में तर्जुमा नहीं किया गया। हालांकि दख्खन में उर्दू जबान में चिकित्सा और प्रौद्योगिकी की तालीम दी जाती थी, लेकिन वैश्वीकरण ने कुछ दशकों से उसको भी खत्म कर दिया और अंग्रेजी का बोल-बाला हो गया। जबकि यूरोप में हम देखतें हैं कि उन्होनें अपनी भाषाओं को नहीं बदला और तालीम का निसाब अपनी मादरी जबान में रखा।’ विभाग के चेअरपर्सन डा. क्रांति पाल ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा की, ‘वैश्वीकरण का संस्कृती और साथ साथ साहित्य पर भी दूरगामी परिणाम हुआ है। दलित और स्त्रीवादी साहित्य में इसका प्रतिबिंब दिखाई देता है।अन्त में संगोष्ठी के प्रमुख संयोजक डा. ताहेर पठान ने सभी लोगों को संगोष्ठी के महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी देते हुये कहा कि, ‘इस वैश्वीकरण के दौर में आज जिन विषयों पर चर्चा हुयी है उन विषय पर हमें सोचने पर मज़बूर कर दिया। उन्होनें कहा कि हमें नकारात्मक सोच को छोड़कर सकारात्मक दिशा की तरफ अपना मार्ग प्रशस्त करना चाहिए, जिससे समाज, संस्कृति, भाषा की रक्षा हो सकती है और मानवता के लिए पुण्य का कार्य होगा।’ इसी के साथ-साथ बाहर के राज्यों से आये सभी सम्मानित बुद्धिजीवियों को स्मृतिचिन्ह् देकर सम्मानित किया गया। जिसमें डॉ. मुन्शी मोहम्मद यूनुस, दिप्ती कवठेकर, निहारिका सिंह, आयरिन कौर, डा. ज़मीर अहमद, अकरम हुसैन आदि शामिल थे। इस संगोष्ठी का संचालन बंगाली सेक्शन की इंचार्ज और इस सेमिनार की समन्वयक डा. आमिना खातून ने किया और डा. मुस्ताक अहमद झरगर ने राष्ट्रीय संगोष्ठी को सफल बनाने के लिये योगदान देने वाले सभी का तहेदिल से धन्यवाद ज्ञापित किया।

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