इस बार उम्मीदवारो की 'खपत ' कम होने का अंदेशा

लखनऊ /यूपी की ‘सियासी मंडी’ का मिजाज बदला हुआ है। इस बार उम्मीदवारों की ‘खपत’ कम होने का अंदेशा है। यूपी के इस नए घटनाक्रम को समझने के लिए पृष्ठभूमि में जाना होगा। दरअसल 1990 के दशक से, राज्य में कांग्रेस के हाशिए पर जाने के बाद से यहां मुख्य लड़ाई एसपी-बीएसपी और बीजेपी के बीच ही होती आई है। इसलिए उम्मीदवारों में इन्हीं पार्टियों से टिकट पाने की होड़ भी रहा करती थी।
ये तीनों पार्टियां राज्य की सभी सीटों पर अलग-अलग चुनाव लड़ती रही हैं। इसलिए मोटे तौर पर 240 उम्मीदवारों को अपनी किस्मत आजमाने का मौका मिला करता था। इस बार एसपी-बीएसपी गठबंधन हो जाने से दोनों पार्टियों ने 38-38 सीटों पर ही चुनाव लड़ने का फैसला किया है। नतीजा यह हुआ कि दोनों पार्टियों से 42-42 यानी कुल मिलाकर 84 उम्मीदवार एक झटके में सड़क पर आ गए हैं।
उधर ‘एंटी-इंकम्बेंसी’ फैक्टर से बचने के लिए बीजेपी भी अपने 30 से 35 सांसदों के टिकट काट सकती है। जाहिर है कि इन उम्मीदवारों के पास चौथे विकल्प के रूप में सिर्फ कांग्रेस बचती है, लेकिन इतने सारे उम्मीदवारों का समायोजन तो कांग्रेस में भी नहीं हो सकता। राज्य में जो छोटी-छोटी पार्टियां हैं, विधानसभा चुनाव में तो वे अपने प्रभाव वाले इलाके से जीत दर्ज करने में कामयाब हो जाती हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में इन पार्टियों की दाल नहीं गलती। विधानसभा के चुनाव में निर्दलीय लड़कर भी जीत की संभावना बनी रहती है, लेकिन लोकसभा चुनाव में निर्दलीय के रूप में जीत पाना आसान नहीं होता।
समायोजन क्यों हुआ मुश्किल
जिन उम्मीदवारों को उनकी पार्टियों से टिकट नहीं मिलेगा, उनके पास दो ही विकल्प होंगे। एक- पार्टी के फैसले को स्वीकार करें। दो- अपना नया ठीहा तलाश करें। पहले विकल्प को स्वीकारने का मतलब होगा अपनी राजनीति को तिलांजलि देना हुआ। विधानसभा चुनाव में मुख्य पार्टियों को अगर किन्ही वजहों से अपने पुराने लोगों का टिकट काटना पड़ता है तो सरकार बनने पर उनके समायोजन की उम्मीद बनी रहती है। लेकिन लोकसभा चुनाव में केंद्रीय सरकार बननी होती है और उसमें इतने सारे लोगों का समायोजन मुमकिन ही नहीं हो सकता। ऐसे में ज्यादातर उम्मीदवारों के लिए दूसरे विकल्प को चुनने की मजबूरी होगी। लेकिन बड़ा सवाल यही कि अवसर कहां उपलब्ध हैं?
बीजेपी से जो लोग बाहर होंगे स्वाभाविक तौर पर उनकी पहली पसंद एसपी-बीएसपी गठबंधन होगा, लेकिन वहां उनके लिए जगह बन पाने की कोई गुंजाइश नहीं है। एसपी-बीएसपी के पास तो महज 38-38 सीटें होंगी, जिन पर टिकट पाने को उनके ही मूल काडर के बीच लड़ाई चल रही होगी। उधर एसपी-बीएसपी से टिकट पाने से वंचित इन 84 उम्मीदवारों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल यह होगी कि एक-दूसरे के यहां से दलबदल करने वाले को स्वीकार नहीं करेंगे।
30-35 बीजेपी सांसदों के कटेंगे टिकट?
बीजेपी में 30-35 मौजूदा सांसदों के टिकट कटने के बाद जिन दावेदारों के लिए गुंजाइश बनेगी, उन पर पार्टी की पहली प्राथमिकता अपने ही काडर को समायोजित करने की होगी। इसके लिए पार्टी नमो एप्प के जरिये हर संसदीय सीट पर तीन सबसे लोकप्रिय नेताओं के नाम भी ले रही है, ताकि टिकट बंटवारे के समय उम्मीदवार का नाम तय करने में आसानी हो।
दूसरे दलों से चुनाव के वक्त आए नेताओं को टिकट मिलने से ग्रासरूट स्तर के कार्यकर्ताओं में असंतोष उभरना स्वाभाविक है और बीजेपी नेतृत्व इस जोखिम से बचना चाहेगा। इसलिए अगर एसपी-बीएसपी से बाहर हुए कुछ लोगों की बीजेपी में जगह बनेगी भी तो वह संख्या महज 5 से 8 के बीच ही हो सकती है।
कांग्रेस की दिक्कत
यह सच है कि कांग्रेस के पास राज्य की सभी सीटों पर प्रभावी चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की कमी है और उसे दूसरे दलों के प्रभावशाली नेताओं की दरकार होगी, लेकिन एक तो संख्या के लिहाज से इतने सारे लोगों का समायोजन मुश्किल होगा, दूसरे पार्टी नेतृत्व पर काडर बेस नेताओं को टिकट देने का दबाव होगा। पार्टी के एक सीनियर लीडर ने एनबीटी के साथ बातचीत में कहा भी कि कांग्रेस अगर राज्य में मजबूत हुई तो निशान के जरिए होगी ना कि दूसरे दलों से आए उम्मीदवारों के चेहरे के जरिए। निशान मजबूत होगा तो कोई भी उम्मीदवार हो वह चुनाव जीत जाएगा।
इसी के मद्देनजर 2009 के चुनाव का उदाहरण भी दिया जा रहा है जबकि जातीय समीकरण में सबसे कमजोर समझे जाने वाले टंडन और जैन समाज के उम्मीदवार भी कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीत गए थे। उन चुनावों में कांग्रेस को 21 सीटों पर चौंकाने वाली जीत मिली थी। एक बात यह भी कही जा रही है कि कांग्रेस विचारधारा के स्तर पर बीजेपी से अपनी दूरी बनाए रखने को वहां से बेदखल किए गए उम्मीदवारों को टिकट देने से बचना चाहेगी। खासतौर पर ऐसे लोगों को तो कतई नहीं देगी जिनपर पर एक खास विचारधारा का गहरा ठप्पा लगा हुआ होगा।
अखिलेश और मायावती की नाराजगी का खतरा
पार्टी के एक वर्ग की राय है कि जिन सांसदों को नकारात्मक रिपोर्ट के चलते उनकी अपनी पार्टी के टिकट से वंचित किया गया हो, उन सांसदों को अपना निशान देकर चुनाव लड़ाना बुद्धिमानी भरा फैसला नहीं होगा। एसपी-बीएसपी के भी ऐसे नेताओं को टिकट देने से बचने की कोशिश होगी, जिन्हें पार्टी में लेने से अखिलेश यादव और मायावती की नाराजगी का खतरा हो।
जाहिर है इन सारे समीकरणों के मद्देनजर इस बार लोकसभा चुनाव के दावेदारों की उपलब्धता ज्यादा होगी और मांग कम। बाजार में जब भी ऐसी सूरत आती है तो भाव गिर जाते हैं। इस बार उम्मीदवारों के साथ भी कुछ ऐसा ही होने वाला है।

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