जो लोग यह मानते हैं कि स्वयंभू खालिस्तान संग्रामी अमृतपाल पर कड़ी कानूनी कार्रवाई से सब कुछ ठीक हो जाएगा, वे मुगालते में हैं

 


हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जहां अतीत की कब्रगाहों में दफ्न हादसों का इस्तेमाल भूल सुधार के लिए नहीं, बल्कि स्वार्थ सिद्धि के लिए किया जाता है। पंजाब के मौजूदा हालात इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। जो लोग यह मानते हैं कि स्वयंभू खालिस्तान संग्रामी अमृतपाल पर कड़ी कानूनी कार्रवाई से सब कुछ ठीक हो जाएगा, वे मुगालते में हैं। गिरफ्तारियां अक्सर अलगाववादियों के लिए ‘अमृत’ सरीखी साबित होती हैं।

अपनी बात समझाने के लिए मैं आपको 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में ले चलना चाहूंगा। दमदमी टकसाल से ताल्लुक रखने वाले एक अक्खड़ सिख प्रचारक को अचानक जननायक बनाने की कोशिशें की जाने लगी थीं। पंजाब में विभिन्न दलों के स्थापित राजनेताओं को बिका हुआ साबित करने की मुहिम इस रणनीति का एक हिस्सा थी।


सामूचे देश में उस समय मोह-भंग का दौर था। बेरोजगार नौजवानों को लगता था कि हमारी आजादी बेमानी है। सलीम-जावेद ने इसका लाभ उठाते हुए एक पिटे हुए हीरो को महान विद्रोही की तरह पेश करने में सफलता अर्जित कर ली थी। अमिताभ बच्चन भग्न स्वप्नों वाली पीढ़ी के चहेते नायक के रूप में उभरे थे। पंजाब की धार्मिक राजनीति में परिवर्तित संदर्भों में बगावती भूमिका भिंडरावाले के लिए रची जा रही थी।


जो लोग इस मसले को तवज्जो नहीं दे रहे थे, उन्हें इस सियासी पटकथा की कसावट का अंदाज नहीं था। भिंडरावाले सीढ़ी-दर-सीढ़ी सामान्य प्रचारक से ‘संत’ और संत से बगावत का अगुवा अनायास ही नहीं बना था। इससे किन राजनेताओं का फायदा हुआ या किनका नुकसान, उस पर बात करना वक्त की बरबादी होगी। इस पर बहुत कुछ लिखा-कहा जा चुका है। निस्संदेह, वह भारतीय संप्रभुता पर देश के अंदर से उपजा अब तक का सबसे खतरनाक हमला था। यह पंजाब, पंजाबियों और सिखों की ही कुव्वत है कि उन्होंने चौतरफा चोट खाने के बावजूद देश की मुख्यधारा से खुद को अलग नहीं होने दिया। 


‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के बाद के चार दशक दिनोंदिन पनपते अमन-ओ-अमान के थे, पर तलछट में बीते हुए बरसों की कसैली कसमसाहट मौजूद थी। कुछ गुरुद्वारों में तब टंगे भिंडरावाले के फोटो आज तक यथावत हैं। इंदिरा गांधी के हत्यारों को शहीद के तौर पर स्थापित करने की कोशिश हुई, पर पंजाब के आम जन ने इससे खास वास्ता नहीं रखा। उधर परदेस में पुराने शोलों को हवा देने वाले अपने कौल पर कायम थे। बहुत से अलगाववादी 1970 के अंत और 1980 की शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, इंग्लैंड, अमेरिका अथवा पूर्वी यूरोप के कुछ देशों में पनाह पाने में सफल रहे थे। वे इस बबूल की शाखें वहां भी रोपते रहे। नतीजा सामने है। पिछले कुछ हफ्तों से पश्चिम के तमाम देशों में हिंदू मंदिरों अथवा भारतीय भवनों पर आक्रमण हो रहे हैं।


उन्हें रोकने की जिम्मेदारी संबंधित मुल्कों की है, पर वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर वांछित कार्रवाई करने से कतरा रहे हैं। यह पश्चिम का पुराना दोमुंहापन है। आज अगर आईएस समर्थक ऐसा प्रदर्शन कर रहे होते, तब भी क्या उनका यही रुख होता? ग्वांतानामो बे और अबू गरीब जैसे यातनागृहों के संचालक चुप क्यों हैं? ये वही लोग हैं, जो व्लादिमीर पुतिन को युद्ध अपराधी घोषित करने पर आमादा हैं, मगर इनके लिए इराक पर हमला कर साढ़े चार लाख लोगों को मार देने वाले बुश पिता-पुत्र जननायक हैं। 


यकीनन, विदेश मंत्रालय के समक्ष एक बार फिर परीक्षा का अवसर आ खड़ा हुआ है। उम्मीद है, सजग और सतर्क एस जयशंकर वह भूल नहीं करेंगे, जो कभी उनके पूर्ववर्तियों ने की थी। जिस तरह रूस से तेल खरीदने के मामले में भारत ने दोहरा रवैया अपनाने वाले पश्चिम के सत्तानायकों को पानी पिलाया, वैसा ही इस मामले में भी करना होगा। यह मुद्दा किसी भी अन्य मसले से अधिक पेचीदा और खतरनाक है।


विगत में विदेश नीति के नियंताओं की तरह चंडीगढ़ और दिल्ली के सत्तानायकों ने भी कुछ गलतियां कीं। जालंधर क्षेत्र के डीआईजी अवतार सिंह अटवाल को 25 अप्रैल, 1983 को मारकर स्वर्ण मंदिर की सीढ़ियों पर फेंक दिया गया था। जब उन पर प्राणघातक हमला हुआ, तब वह वर्दी में थे। इसके बावजूद उनका शव घंटों लावारिस स्थिति में पड़ा रहा। पंजाब को ‘कवर’ कर रहे तमाम पत्रकारों ने बाद में बारंबार लिखा कि यदि पंजाब पुलिस को अर्द्धसैनिक बलों के साथ तत्काल कार्रवाई करने के लिए प्रेरित किया गया होता, तो हम ऑपरेशन ब्लू स्टार से बच सकते थे।


कहीं चंडीगढ़ के सत्तानायक आज वही गलती तो नहीं दोहरा रहे हैं? लाल किला कांड के खलनायक दीप सिद्धू की मौत के बाद यकायक पंजाब आ धमके अमृतपाल की लोकप्रियता रातोंरात बढ़ी है। वहां का गृह विभाग उस पर उसी समय नकेल कस देता, तो ऐसे हालात पैदा नहीं होते। समुचित कार्रवाई के अभाव में वह लगातार आक्रामक होता गया। पिछली 24 फरवरी को उसने पूर्व चेतावनी को अमलीजामा पहनाते हुए न केवल अजनाला थाने को घेर लिया था, बल्कि अपने साथी लवप्रीत सिंह तूफान को छुड़वाने में कामयाबी भी हासिल कर ली। पंजाब पुलिस को 1970 और 80 के दशक में भी ऐसे ही आत्मसमर्पण के लिए लगातार विवश किया गया था। नतीजतन, इस जागृत सूबे को अपने ही रक्त से नहाना पड़ा। यदि इस कार्रवाई की चेतावनी देते ही अमृतपाल की घेराबंदी हो गई होती, तो उसे देश-दुनिया में अपना नाम चमकाने को मौका नहीं मिलता। अजनाला कांड ने उसकी राष्ट्र-विरोधी बकवास को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में तब्दील कर दिया। 


एक और बात। 1970 के दशक के अंतिम वर्षों में पंजाब के पुराने राजनेता ढलान पर थे। तमाम अति-महत्वाकांक्षी युवा हर हाल में उनकी हैसियत हासिल करने पर आमादा थे। आज पंजाब के सियासी हालात उससे भी खराब हैं। प्रकाश सिंह बादल की अगुवाई वाला अकाली दल अपनी आब खो चुका है। कांग्रेस में कोई धार नहीं रह बची है। भारतीय जनता पार्टी वहां अपना अलग आधार बनाने में अभी तक कामयाब नहीं हुई है। सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी न केवल नई है, बल्कि उसे अपना सैद्धांतिक आधार अवाम के बीच मजबूत करना है।


इसी तरह, किसी भी दल में अभी ऐसा कोई कद्दावर नेता मौजूद नहीं है, जो अवाम को सही राह पर चलने की प्रेरणा दे सके। अलगाववादियों के लिए ऐसे हालात आदर्श साबित होते हैं। मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान द्वारा छोड़ी गई संगरूर सीट पर हुए उपचुनाव में अलगाववादियों के अगुवा सिमरनजीत सिंह मान की जीत इसका उदाहरण है। ध्यान रहे, पंजाब के मौजूदा हालात को सिर्फ विधि-व्यवस्था का मामला मान बैठना गलती होगी। इस समस्या की जडें़ समाज और सियासत से जुड़ी हुई हैं। हमारे सत्तानायक भूलें नहीं कि उन्हें मर्ज को खत्म करना है, मरीज को नही है।

साभार: Neha sanwariya 





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