प्राय: वैज्ञानिक छोटे और साधारण किसानों की कृषि को पिछड़ी हुई मानते हैं, और इस कारण इसकी उपेक्षा भी करते हैं। दूसरी ओर शीर्ष वैज्ञानिक डॉ. आर.एच. रिछारिया कहा करते थे: ‘हमें साधारण किसानों विशेषकर आदिवासी किसानों से बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है, और हमें उनके परंपरागत ज्ञान और प्रयासों को समझने और सीखने का प्रयास करना चाहिए।’
चावल अनुसंधान का भारत में बहुत उत्साहवर्धक काम डॉ. रिछारिया के नेतृत्व में तत्कालीन मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में किया गया। अधिकतर काम मध्य प्रदेश चावल अनुसंधान संस्थान (मप्रचअस) में हुआ जिसके निदेशक डॉ. रिछारिया थे। छत्तीसगढ़ क्षेत्र से 17000 से भी अधिक चावल की किस्में और उप-किस्में एकत्र की गई, अनेक सुधरे चयन किए गए, अनेक देसी अधिक उत्पादकता की किस्मों की पहचान की गई और देशीय जनन-द्रव्य पर आधारित उत्साहवर्धक और महत्त्वपूर्ण संभावनाओं वाला कार्यक्रम विकसित किया गया।
उस समय के मप्रचअस के प्रकाशनों और दस्तावेज में इस कार्यक्रम के बारे में विस्तार से बताया गया।
डॉ. रिछारिया द्वारा लिखित वर्ष 1977 के दस्तावेज ‘मध्य प्रदेश में चावल का दीर्घकालीन विकास सुनिश्चित करने के लिए रणनीति’ (अ स्ट्रेटजी फॉर राइस प्रोडक्शन टू एंश्योर सस्टेंड ग्रोथ इन मध्य प्रदेश) से नीचे के तथ्य लिए गए हैं। इस दस्तावेज में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह स्पष्ट की गई है कि विदेशीय अधिक उत्पादकता की किस्मों (अउकि) के बराबर या उससे अधिक उत्पादकता अपेक्षाकृत कहीं कम खर्च में देने वाली अनेक देसी अउकि भी उपलब्ध हैं।
1975 में ऐसी अनेक किस्मों पर राज्य भर में व्यापक प्रयोग किए गए जिनके परिणामस्वरूप उनसे औसतन 3984 किग्रा. प्रति हेक्टेयर धान या 2269 किग्रा. प्रति हेक्टेयर चावल की उत्पादकता प्राप्त हुई जो उस समय मध्य प्रदेश कृषि विभाग द्वारा निर्धारित अउकि की परिभाषा की (3705 किग्रा. धान प्रति हेक्टेयर) से अधिक थी। इस दस्तावेज में विभिन्न देशी किस्मों से उपलब्ध होने वाली अधिक उत्पादकता को विस्तार में बता कर कहा गया है कि बी.डी. सीरीज के अंतर्गत चयनित किस्में निकट भविष्य में उत्पादकता बढ़ाने का आधार सिद्ध हो सकती हैं, और स्वाद, विनाशक जंतुओं और कुछ हद तक सूखे से प्रतिरोध की दृष्टि से भी लाभप्रद हैं।
देशी किस्मों में से लगभग 9 प्रतिशत अउकि पाई गई जो 3705 किग्रा. धान प्रति हेक्टेयर से अधिक उत्पादकता दे रही थीं। प्राय: वे कुछ थोड़े से हिस्सों या किसानों तक सीमित थीं। मप्रचअस ने उनके सुधरे चयन विकसित किए और उपलब्ध कराए। कुछ देशी बौनी किस्मों की भी पहचान की गई। 8 प्रतिशत देशी किस्मों को शीघ्र तैयार होने वाला पाया गया। अनेक किस्मों में सूखा प्रतिरोधन सामर्थ्य पाई गई और वे विशेषकर उच्च भूमि (अपलैंड्स) या ‘टिकरा भाटा’ जमीन के लिए उपयोगी पाई गई। उनके विकसित चयन उपलब्ध करवाए गए जो विनाशक जंतुओं के भी प्रतिरोधी थे। कुछ किस्में बहुत जल्दी तैयार होती थीं और उनकी खाद की जरूरत भी कम थी।
इसी प्रकार 273 सुगंधित किस्मों की पहचान की गई जैसे सेहावा नगरी की डुबराज और डाबरा की काली मूंछ। अनेक ऊंची कीमत उपलब्ध कराने वाली बढ़िया दाने की किस्मों की पहचान हुई जैसे तिल कस्तूरी, मोतीचूर, कटकी कमेली आदि। लंबे दाने की किस्मों जैसे डोकरा डेकरी का भी पता लगाया गया। चिलको किस्म की चपाती बनती थी और खोवा किस्म का सूखे दूध जैसा स्वाद पाया गया। एक किसान वैज्ञानिक मंगल सिंह के अनुभवों और उपलब्धियों से पता चलता है कि किसानों की समस्याओं की बहुत व्यावहारिक समझ होने के कारण किसान वैज्ञानिक खेती की समस्याओं के समाधान में कितना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। हमारे देश में लाखों किसान बहते नदी-नालों से खेत की सिंचाई करने के लिए डीजल पंप सेट से पानी उठाते हैं। अनेक गांवों में पेयजल के लिए या अन्य उपयोग के लिए भी इस तरह पानी उठाया जाता है। इस डीजल पर किसानों का बहुत पैसा खर्च होता है और प्रदूषण होता है सो अलग। ललितपुर जिले (उत्तर प्रदेश) के मंगल सिंह ने किसानों की इस समस्या को समझा और मंगल टरबाइन बना कर ऐसी व्यवस्था संभव की कि बिना डीजल और बिजली के ही पानी उठाकर प्यासे खेतों तक पंहुचाया जा सके।
अपने इस पेटेंट प्राप्त आविष्कार के बारे में मंगल सिंह स्वयं बताते हैं, मंगल टरबाइन गांव में ही बनने वाली ऐसी मशीन है, ग्रामीण तकनीकी है जो बहती जल धारा से चलती है। एक आवश्यकता के अनुरूप छोटा-बड़ा व्हील बनाते हैं, जिसे एक चक्कर बढ़ाने वाले गियर बॉक्स से जोड़ते हैं जिससे इंजन मोटर की भांति तेज स्पीड चक्कर बनते हैं। गियर बाक्स की आउटपुट शॉफ्ट दोनों तरफ निकली होती है, जिससे क्लोकवाइज या एंटी-क्लोकवाइज कोई एक या दोनों भी एक साथ पंप चला सकते हैं। गियर बॉक्स की शॉफ्ट के दूसरे सिरे पर पुल्ली लगाकर कुट्टी मशीन, आटा चक्की, गन्ना पिराई या कोई भी अन्य कार्य कर सकते हैं या जनरेटर जोड़ कर बिजली बना सकते हैं। आम तौर पर ग्रामीण इलाकों में जहां किसान नदी-नालों से डीजल या बिजली पंपों से सिंचाई करते हैं, वहां मंगल टरबाइन द्वारा बिना इंजन, बिना मोटर, बिना डीजल, बिना बिजली के सिंचाई करते हैं। पाइपों द्वारा पानी कहीं भी ले जा सकते हैं। पीने के लिए भी पानी पंप कर सकते हैं।
मंगल टरबाइन का उपयोग यदि उन सभी स्थानों पर किया जाए जो इसके अनुकूल हैं, तो इससे करोड़ों लीटर डीजल की बचत सालाना हो सकती है, और किसान का खर्च भी बहुत कम हो सकता है। प्रदूषण विशेषकर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी बहुत कम होगा। मंगल टरबाइन को सिंचाई और कुटीर उद्योगों के लिए वरदान बताते हुए आईआईटी, दिल्ली और विज्ञान शिक्षा केंद्र के एक अध्ययन ने बताया है कि पूरी तकनीक ऐसी है, जो गांव स्तर पर अपनाई जा सकती है, और इससे गांवों में बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन भी होगा। भारत सरकार के ग्रामीण विकास विभाग द्वारा नियुक्त बीपी मैथानी समिति ने इस बारे में विस्तृत संस्तुतियां भी दी हैं कि मंगल टरबाइन का व्यापक प्रसार किया जाए।
साभार: narender
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