समाज में पनपती हिंसक प्रवृत्ति चिंता का विषय


 चिंता। किसी भी समाज में पनपती हिंसक प्रवृत्ति चिंता का विषय होती है, चाहे उसे अंजाम देने वाला तबका कोई भी हो। पर अगर कम उम्र के कुछ बच्चे भी मामूली बात पर हिंसक होने लगें, यहां तक कि जानलेवा हमला और हत्या तक करने लगें, तो इसे गंभीर चेतावनी के तौर पर देखा जाना चाहिए। दरअसल, पिछले दिनों ऐसी कई घटनाएं सामने आर्इं, जिनमें किसी किशोर ने मामूली बात पर किसी की जान ले ली।

लेकिन दिल्ली के मैदानगढ़ी इलाके में जिस तरह बारहवीं कक्षा के एक छात्र को दो नाबालिगों ने महज मोबाइल छीनने का विरोध करने पर चाकू से मार डाला, उसे सिर्फ इक्का-दुक्का घटना मान कर नजरअंदाज करना शायद ठीक नहीं होगा। आरोपी नाबालिगों ने छात्र का गला रेत दिया और उसकी मौत के बाद तेजाब से उसका चेहरा भी जलाने की कोशिश की।


यह किसी पेशेवर अपराधी की तरह की हरकत है, जिसमें हत्या और फिर पकड़े जाने से बचने के लिए सबूत मिटाने का प्रयास किया गया। अगर पुलिस ने उस इलाके के सीसीटीवी फुटेज को नहीं खंगाला होता, तो शायद आरोपियों को पकड़ना भी मुश्किल होता। सवाल है कि जिस उम्र में बच्चे कोमल भावनाओं के दौर से गुजर रहे होते हैं, उसमें कुछ के भीतर इस तरह की हिंसक प्रवृत्ति कैसे घर कर जाती है!

हाल ही में दिल्ली के एक स्कूल में तीन छात्रों ने मिल कर एक शिक्षक पर चाकू से जानलेवा हमला कर दिया। कारण बस इतना था कि शिक्षक ने छात्रों को स्कूल की वर्दी को लेकर डांटा था। नाबालिगों का आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होना कोई नई बात नहीं है, मगर पिछले कुछ समय से ऐसी घटनाएं देखी जा रही हैं, जिनमें मामूली बात पर हुए विवाद पर किसी किशोर ने खुद या अपने साथियों के साथ मिल कर अन्य साथी बच्चे को बुरी तरह मारा-पीटा या फिर उसकी हत्या कर दी।

कोई समाज अगर दिनोंदिन सभ्य और अहिंसक होने की ओर बढ़ता है, तो उसकी नई पीढ़ी भी यही रास्ता अख्तियार करती है। मगर आज ऐसे हालात क्यों सामने आ रहे हैं, जिनमें किशोरों के बीच हिंसक प्रवृत्ति बढ़ती देखी जा रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वक्त के साथ होने वाले बदलाव से संतुलन बिठाना जरूरी होता है, लेकिन बदलाव की रफ्तार और उसका दायरा क्या ऐसा हो सकता है कि उससे संतुलन बिठाने के क्रम में समाज का सबसे नाजुक हिस्सा ही असंतुलित होने लगे ?

किशोरावस्था उम्र का एक जटिल पड़ाव होता है, जिससे गुजरते बच्चे कई तरह की उथल-पुथल का सामना कर रहे होते हैं। ऐसे में अगर समाज और सरकार के स्तर पर ऐसी व्यवस्था बनाने में कोताही की जाती है तो उसका खमियाजा भावी पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है। एक ओर, बहुत सारे परिवारों को रोजमर्रा की जरूरतें पूरा करने के लिए जद्दोजहद करना पड़ता है और ऐसे में कुछ बच्चे अभाव और उपेक्षा का शिकार होकर गलत रास्ता अख्तियार कर लेते हैं, तो वहीं आधुनिक तकनीकी के नए-नए यंत्रों, गैरजरूरी और विकृति पैदा करने वाली सामग्री के बीच पलते कुछ किशोर असंतुलन का शिकार होकर अपराध की ओर भी बढ़ जाते हैं।

ऐसे में जो कानूनी कार्रवाई निर्धारित है, उसे सुनिश्चित करने के अलावा बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क के अनुकूल माहौल निर्मित करने की जरूरत है, ताकि भावी पीढ़ियों को इंसानियत, सभ्यता और संवेदनशीलता की सीख मिल सके। अन्यथा अभाव या फिर सुविधाओं की अतिशयता की वजह से दिशाहीन हुए बच्चे समाज या देश के लिए एक गंभीर समस्या बनेंगे।

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NARENDRA 












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